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  • प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - २

    प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - २

    आज हिन्दी राष्ट्रभाषा व राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है भारतीय संस्कृति की महानता के उद्घोषक महर्षि स्वामी दयानन्द जैसे अपने उद्वारकों अपर निस्संदेह गर्व करती है और उनका गौरव गान करती है। 

    वैचारिक क्रान्ति के अग्रदूत स्वामी जी कर्मवीर महामानव थे। पतन के गर्त में गिरते समाज के प्रति वे अपने कर्म से कैसे उदासीन रह सकते थे? इसलिए उस कर्मशील व्यक्तित्व ने धुन की तरह समाज की जड़ों को खोखला कर रही जाति-पाति, छूत-छात, बल विवहा, पर्दा-प्रथा जैसी कुरीतियों से भारतीय समाज को मुक्त कराने का कर्तव्य वहन किया और इन समस्त कुरीतियों पर कुठाराघात किया। उस महमनीषि ने अज्ञान पर तीव्र प्रहार करने हेतु आर्य समाज व विभिन्न गुरुकुलों की स्थापना द्वारा ज्ञान की शत्-शत् धाराओं को प्रवाहित किया। इसी सन्दर्भ में उन्होंने भारतीय संस्कृति की नींव नारी-जाति के उत्थान हेतु नारी-शिक्षा का अभियान चलाया। आज यदि भारतीय नारी प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के साथ समानता के स्तर पर खड़ी है, यहां तक कि कुछ क्षेत्रों में तो अग्रणी है तो इसका समस्त श्रेय ऋषिवर स्वामी दयानन्द जैसे शक्ति पुरुष को ही जाता है और उनके इस महत् कार्य के लिए भारतीय नारी वर्ग सदा उस क्रान्तिदृष्टा का ऋणी रहेगा।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 30 | सम्पूर्ण दुःखों की समाप्ति की कामना | यजुर्वेद मन्त्र 30.3

    इस प्रकार महर्षि जैसी दिव्य विभूति ने देशवासियों को नव्य चेतना, नयी जागृति प्रदान कर उन्हें कर्ममय व धर्ममय जीवन जीने की प्रेरणा दी। जागरण का जो शंखनाद उन्होंने की उससे सुप्त राष्ट्रवासी चैतन्य हो उठे थे उनका परमार्थमय जीवन उनकी पावन भक्ति तथा उनका दिव्य ज्ञान युगों-युगों तक हमारी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करता रहेगा। इसलिए समाज सुधारकों में अग्रदूत, सांस्कृतिक पुनरुत्थान करने वाले अज्ञानांधकार के विनाशक, वैदिक-साहित्य की नविन व्याख्या करने वाले सुधी व्याख्याता, आर्य समाज के संस्थापक, सनातन धर्म को उसकी अतिवादिताओं से अवगत कराने वाले सत्य शोधक मनीषी, सामाजिक कुरीतियों, प्राचीन रूढ़ियों पर प्रहार करने वाले व अस्पृश्यता का निराकरण करने वाले विशाल हृदयी सुधारक, नारी जाति के समादर का भाव विकसित करने वाले नारी शिक्षा के प्रणेता, राष्ट्रीय भावना का प्रसार करने वाले राष्ट्र-प्रेमी एवं 'शुद्धि' को जन्म देने वाले ज्ञानपुंज महर्षि दयानन्द सरस्वती का भारत का कोना-कोना गौरव गान करता है। परन्तु महर्षि के प्रति सच्चा श्रद्धापूर्वक नमन उनके बताए मार्ग पर चलना होगा। उनके उपदेशों को व्यवहार में लाना होगा। क्योंकि आधुनिक परिस्थितियां अत्यंत विकट है। जिस विदेशी सत्ता की राजनितिक अधीनता के विरुद्ध महर्षि ने उद्घोष किया था। ''विदेशी शासन अच्छे से अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी शासन की तुलना में अच्छा नहीं।''

    आज वैसी ही विदेशी शक्तियां भारत आर्थिकता को नियंत्रित करने का दुःसाहस दिखा रही हैं, उसी प्रकार के विदेशी आक्रान्ता हमारी सांस्कृतिक सम्पदा को तहस-नहस कर डालना चाहते हैं, हमारे युवा वर्ग की मानसिकता को अपने अधीन कर रह हैं। अर्थात् इस बार आक्रमण एक नहीं, कई षड्यन्त्र के रूप में अप्रत्यक्षतः किया जा रहा है। मीडिया को शस्त्र बनाकर आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति की अश्लीलता का वीभत्स नृत्य प्रदर्शित किया जा रहा है और हमारी युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर चारित्रिक ह्रास द्वारा भारतीय संस्कृति के वर्तमान व भविष्य को कलुषित करने की कुचेष्टा की जा रही है। किन्तु आश्चर्य व दुःख की बात है कि हम फिर भी मौन हैं। राष्ट्र में साम्प्रदायिकता की अग्नि सुलगती है, जाति-भेद की दीवारें सीना ताने खड़ी हैं, नेताओं के लिए देश सेवा 'स्वयंसेवा' बन चुकी है, युवा पीढ़ी अपनी ही संस्कृति से विमुख हो उसका उपहास उड़ा रही है, पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, स्वार्थ मानवता की लील रहे हैं, अंधविश्वास का अस्तित्व आज भी विवेक बुद्धि पर बज्र प्रहार कर रहा है परन्तु फिर भी हम मौन हैं, मूक दर्शक बने बैठे हैं।
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    आज आवश्यकता है पुनः जागृत होने की और इस जागरण का स्त्रोत है ऋषिवर द्वारा निर्दिष्ट मार्ग। इसके लिए आत्म-मंथन करना होगा। क्या हम उस महान व्यक्तित्व द्वारा निर्दिष्ट पथ के पथिक बनने का सामर्थ्य रखते हैं? क्या हम उनके द्वारा बताए उपदेशों का पालन कर रहे हैं? क्या हम पूर्ण निष्ठा से उनके चरण चिन्हों का अनुसार करने को कृत संकल्प हैं? क्या हम वास्तव में आर्य समाज के सिद्धान्तों पर अडिग हैं ?
    यदि हमारा अन्तर्मन, हमारी अन्तरात्मा द्वारा इन प्रश्नों का हमें सकारात्मक उतर प्राप्त होता है तो निश्चय ही राष्ट्र कल्याण व मानव मंगल हेतु किए गए हमारे सभी प्रयास सार्थक होंगे और एक दिन समस्त मनोमालिन्य, हृदयगत कलुषता, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, स्वार्थ का नाश होगा और हम सही मायनों में उस दिव्य व्यक्तित्व स्वामी दयानन्द के अनुयायी कहलाने योग्य होंगे।

    कविवर उदयभानु हंस की पंक्तियों में अपनी बात समाप्त करना चाहूंगी -
    तुम विष को सुधा सोम, बनाओं तो सही।
    सीमा को कभी व्योम, बनाओं तो सही। 
    कण-कण में वही रूप दिखाई देगा।
    पहले अहं को ओम् बनाओं तो सही। 
    -
    श्रीमती सुशील बाला


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    This Time the Attack is being done indirectly in the form of not one, but many conspiracies. The media is displaying a gruesome dance of vulgarity of Western culture in the name of modernism and misleading our young generation by misleading the present and future of Indian culture by character deprivation. But it is a matter of surprise and sadness that we are still silent.

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  • प्रार्थना से कामना सिद्धि

    प्रार्थना से कामना सिद्धि

    मनुष्य अनेक शुभ अभिलाषाओं से कुछ यज्ञों को प्रारम्भ करते हैं और चाहते हैं कि यज्ञ सफल हो जाएँ, परन्तु कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक उस यज्ञ में देवों के देव अग्निरूप परमात्मा पूरी तरह न व्याप रहे हों। चूँकि जगत में परमात्मा के अटल नियमों व दिव्य-शक्तियों के अर्थात् देवों के द्वारा ही सब-कुछ सम्पन्न होता है। परमात्मा के बिना कोई यज्ञ कैसे सफल हो सकता है? और जिस यज्ञ में परमात्मा व्याप्त हो वह यज्ञ अध्वर (ध्वर अर्थात कुटिलता और हिंसा से रहित) तो अवश्य होना चाहिए। पर जब हम यज्ञ प्रारम्भ करते हैं, कोई शुभ कर्म करते हैं, किसी संघ-संघटन में लगते हैं, परोपकार का कार्य करने लगते हैं, तो मोहवश परमात्मा को भूल जाते हैं। उसकी जल्दी सफलता के लिये हिंसा और कुटिलता से भी काम लेने को उतारु हो जाते हैं। तभी परमात्मा हाथ हमारे ऊपर से उठ जाता है। ऐसा यज्ञ देवों को स्वीकृत नहीं होता, उन्हें नहीं पहुँचता, सफल नहीं होता। इसलिए याज्ञिक प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! अब जब कभी हम निर्बलता के वश अपने यज्ञों में कुटिलता व हिंसा का प्रवेश करने लगें और तुझे भूल जाएँ तो हे प्रकाशक देव! हमारे अन्तरात्मा में एक बार इस वैदिक सत्य को जगा देना, हमारा अन्तरात्मा बोल उठे कि हे अग्ने! जिस कुटिलता व हिंसारहित यज्ञ को तुम सब ओर से घेर लेते हो, व्याप लेते हो, केवल वही यज्ञ देवों में पहुँचता है अर्थात् दिव्य फल लाता है, सफल होता है। सचमुच तुम्हें भुलाकर, तुम्हें हटाकर यदि हम किसी संगठन शक्ति द्वारा कुटिलता व हिंसा के जोर पर कुछ करना चाहेंगे तो चाहे कितना भी घोर उद्योग कर लें हमें कभी सफलता नहीं मिलेगी।•

    Everything in the world is accomplished by God's steadfast rules and divine powers, that is, by the Gods. How can any Yagya be successful without God? And the Yagya in which God is present must be Adhvara Dhvara i.e. free from evil and violence.

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  • ब्रम्हचर्य का महत्व

    ब्रम्हचर्य का महत्व
    आश्चर्य नहीं कि भारतीय साधनापद्धति में ब्रम्हचर्य का विशेष महत्व माना गया है। शास्त्रों में स्पष्ट है कि कामरूपी शक्ति का का दमन संभव नहीं, न ही यह स्वस्थ प्रक्रिया है। इसका दमन तमाम तरह के मनोविकारों एवं विकृतियों को जन्म देता है, साथ ही इसका असंयमित एवं अमर्यादित उपभोग भी घातक है। इसके संदर्भ में मध्यम मार्ग का अनुसरण ही सर्वसाधारण के लिए उचित है। जीवन के उच्च आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि एवं जीवनशैली के साथ इसका सृजनात्मक नियोजन किया जा सकता है।

  • महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १

    महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १ 

    भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब महर्षि दयानन्द ने अपने व्याख्यानों, शास्त्रार्थों और ग्रन्थों के द्वारा विदेशी धर्मों का खण्डन किया। भारतीय सम्प्रदाय और धर्म तो एक दूसरे का खण्डन करते ही रहते थे। शाक्त, शैव, वैष्णव सम्प्रदाय परस्पर एक दूसरे का खण्डन करते रहे हैं। आद्य शंकराचार्य ने जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त कर वैदिक धर्म की स्थापना की। उनके प्रचार और शस्त्रार्थों से बौद्ध धर्म तो भारत में समाप्तप्राय हो गया। किन्तु मतखण्डन पूर्वक स्वमत स्थापना की परम्परा तो भारत में आदि काल से चली आ रही है।

    महर्षि दयानन्द ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों का एक समान विधिवत् खण्डन किया है। इससे भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों के दुराग्रही अन्धविश्वासी लोगों में कुछ तनाव की भावना आई। इससे कुछ लोगों में यह धारणा बन गई है कि महर्षि दयानन्द ने खण्डन मार्ग पर चलकर दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति सदभाव को छोड़ वैमनस्य का मार्ग अपनाया। है। इससे भारत के विविध धर्मो के अनुयायियों के बीच तनाव बढ़ा है। अब हम कुछेक पक्तियों में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे कि क्या महर्षि दयानन्द ने खण्डन का मार्ग अपना कर तनाव उत्पन्न किया है अथवा धर्म के इतिहास में एक नै जागृति उत्पन्न की है और प्रत्येक धर्म को वैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का यत्न किया है, सभी धर्मो को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है?

    महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की रचना बड़े शुद्ध भाव और सत्यान्वेषण की दृष्टि से की है। वे सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मत में हैं वे पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धांत अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल सबके मत में है उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें है उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें बर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इन हानि ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है- सब मनुष्यों को दुख सागर में डूबा दिया।'' महर्षि पुनः लिखते हैं- 'यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसे ही दूसरे देशस्थ या मतोन्नति वालों के साथ भी बर्तता हूँ। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में बर्तता हूँ वैसा विदेशियों के साथ भी तथा विषय में बर्तता को बर्तना योग्य है।

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    Ved Katha Pravachan - 21 | Introduction to the Vedas | विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन

    महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की उत्तरार्ध अनुभूमिका में एक सार्वभौम मत का प्रवर्तन करने के लिए लिखते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्ध वाद नहीं छूटेगा तब तक अन्योअन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिए यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ने ही सबको विरोध जल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहे तो अभी ऐक्य मत हो जाय।

    शास्त्रार्थ परम्परा और सत्यान्वेषण का समर्थन करते हुए मर्हिष दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की अनुभूमिका-२ में बारहवाँ समुल्लास आरम्भ करने से पहले लिखते हैं जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद या लेख न किया जाय तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता तभी विद्वानों को महा अंधकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुख्य काम है।
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    सत्यार्थप्रकाश के विद्वानों से हमने यह सिद्ध करे का प्रयास किया है कि सत्यासत्य के निर्णय के लिए प्रीति से शास्त्रार्थ परम्परा को चलाना परम आवश्यक है और इसी दृष्टी से महर्षि ने अपने समय में प्रचलित सभी मतमतान्तरों की समीक्षा की है। अब हम महर्षि की जीवनी की ओर आते हैं और यह देखने का यत्न करते हैं कि उनका विविध धर्मो के अनुयायिओं के प्रति कैसा व्यवहार था। महर्षि सन्यासी होने के नाते ''सर्वभूतहिते रतः'' (सब प्राणियों का कल्याण करने वाले थे ) वे 'शठे शाठ्यं समाचरेत्'- दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार-सिद्धान्त को मानाने वाले नहीं थे। वे तो दुष्टों के प्रति भी सज्जनता का व्यवहार करते थे। वे कहा करते थे - यदि दुष्ट अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ते तो सज्जन अपनी सज्जनता को क्यों छोड़े? किसी कवी ने सज्जन का बड़ा सुन्दर लक्षण किया है:- 

    ते साधवः सुजन्मानस्तैरीयं भूषिता धरा। अपकारिषु भूतेषु ये भवन्त्युपकारिणः||
    उन सज्जनों का जन्म लेना सार्थक है और ऐसे सज्जनों से धरती शोभायमान होती है - जो दुष्टों का भी उपकार करते हैं। सच पूछिए तो महर्षि ऐसे ही सज्जन थे।
    महर्षि दयानन्द ''वसुधैय कुटुम्भकम'' को मानाने वाले थे। वे समस्त संसार को अपना परिवार समझते थे। उनके लिए अपने-पराये नाम की कोई बात नहीं थी। उन्होंने सभी धर्मो के आचार्यों को एक मंच पर लाने का यत्न किया। उनकी जीवनी का एक प्रसंग यह है:- दिसम्बर १८७६ में दिल्ली में राजदरबार हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के महोत्सव के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा के महोत्सव हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा होने वाली थी। उसके लिए सभी राजे-महाराजे और प्रतिष्ठित नागरिक राज-निमंत्रण से वहाँ एकत्र हो रहे थे। कहा जाता है कि महाराजा इंदौर ने ऐसे अवसर पर धर्म-प्रचार करे के लिए महरिष को निमन्त्रित किया था। वे राजमण्डल में भी उनका भाषण कराना चाहते थे।

    राजदरबार के अवसर पर महर्षि के सत्संग का लाभ उच्चकोटि के लोगों ने उठाया। महर्षि तो चाहते थे कि राजाओं, महाराजाओं की सभा करके सब आर्यो में एक धर्म और एकता का तांगा पिरो दिया जाय परन्तु अनेक कारणों से इनमे सफलता न होते देख एक दिन महर्षि ने अपने स्थान पर भारत के भिन्न-भिन्न मतों और जातीय नेताओं की एक सभा बुलाई। उनके निमन्त्रण पर पंजाब के प्रसिद्ध सुधारक कन्हैयालाल जी अलखधारी, श्रीयुत नवीनचन्द्रराय, श्री हरिश्चंद्र चिंतामणि, सर सैय्यद अहमद खां, श्री केशवचन्द्र सेन और श्री इंद्रमन जी- ये छह सज्जन वहाँ पधारे। वहाँ महर्षि ने यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि हम भारतवासी सब परस्पर एक मत होकर एक ही रीती से देश का सुधार करें तो आशा है भारत देश सुधर जावेगा, किन्तु कई मौलिक मतभेद होने के कारण वे सब एकता के सूत्र में सम्बद्ध न हो सके। - विश्वनाथ शास्त्री

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    This was the first time in Indian history when Maharishi Dayanand repudiated foreign religions through his lectures, lectures and texts. Indian sects and religions used to contradict each other. The Shakta, Shaiva and Vaishnava sects have been contradicting each other. Adya Shankaracharya debated with the Jains and the Buddhists and disbanded their religions and defeated them and disbanded their religions and defeated them and established the Vedic religion. 

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  • महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - २

    महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - २

    महर्षि दयानन्द को अपने सिद्धांत प्यारे थे परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वे अन्यों के सिद्धांत की अवहेलना करते थे। वे बड़े सहनशील थे। वे पौराणिक या हिन्दू धर्म के मूर्ति-पूजा आदि सिद्धांतों की शास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा करते हुए भी हृदय को विशालता के कारण हिन्दू धर्म को उदार ही मानते थे। अपने जीवन के एक प्रसंग में वे १८७७ के लगभग अमृतसर पहुंचे। वहां के कमिश्नर की प्रार्थना पर महर्षि उनके बंगले पर पधारे। वार्तालाप करते हुए कहा कि- ''हिन्दू धर्म को'' सूत के समान कच्चा'' क्यों कहते हैं? महर्षि ने उतर दिया- ''यह कच्चा नहीं किन्तु लोहे से भी कड़ा है। हिन्दू धर्म समुद्र के समन है। इसमें अनेक अच्छे और बुरे मतों के तरंग विद्यमान है, सदाचारी हैं, परोपकार परायण रहते हैं और एक निराकार परमेश्वर को अपने मनो मन्दिर में पूजते हैं। इनके विपरीत लोग भी हिन्दू धर्म में पाए जाते है जो महाक्रूर, अनाचारी, वामी हैं; कोरे नास्तिक, अवतारों को मनाने वाले हैं। यहाँ योगी, ध्यानी, तपस्वी, और आजीवन ब्रम्हचारी रहने वाले भी विद्यमान हैं और ऐसे भी अनेक हैं - जिनका उद्देश्य आमोद-प्रमोद और संसार का सुख है। हिन्दू धर्म में छुआ-छूत मानने वाले सैकड़ों हैं वहाँ सबक साथ भोजन करे वाले हजारों हैं। परमार्थी-दर्शी और तत्वज्ञानी लोग इस धर्म में उच्च पद के पाए जाते हैं और ऐसे भी मिल जाते हैं जो ज्ञान के पीछे डण्डा लिए डोलते हैं। उत्तम माध्यम और निकृष्ट विचारों-अचारों के सभी मत और उनके मानने वाले मनुष्य इस मार्ग में मिलते हैं। वे सभी हिन्दू हैं और उन्हें कोई हिन्दूपन से निकाल नहीं सकता इसीलिए हिन्दू धर्म निर्बल नहीं किन्तु परम सबल हैं।''

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    Ved Katha Pravachan -22 | Explanation of Vedas & Dharma | परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य

    प्रायः सभी धर्म अपने मत को सर्वश्रेष्ठ और अन्यों को दिन समझते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण वे अपने धर्म के विरुद्ध किसी बात को सुनना नहीं चाहते। इसी प्रवृत्ति के कारण भारत में प्रचलति सभी धर्म महर्षि के खण्डन से उनके विरोधी बन गए परन्तु महर्षि ने तो खण्डन का मार्ग सत्यासत्य के निर्णय के लिए अपनाया था। वे किसी के दिल को दुखाना नहीं चाहते थे। वे सैंद्धांतिक दृष्टि से सभी धर्मो का खण्डन करते थे, किन्तु सभी धर्मों के अनुयायिओं से प्रेम करते थे, विरोधियों का भी हित किया करते थे। अपने हत्यारों को भी क्षमा कर देते थे और उनके कल्याण के लिए यत्न शील रहते थे। महर्षि के जीवन से सम्बन्धित एक और घटना लगभग १८६७ में वे अनूपशहर में प्रचारार्थ पहुंचे। वहां एक ब्राह्मण ने रुष्ट होकर उन्हें पान में विष दे दिया। महर्षि ने न्यौली कर्म करे विष को अपने शरीर से निकाल दिया। सैय्यद मुहम्मद तहसीलदार, जो महर्षि के भक्त थे, ने जब यह समाचार सुना तो ब्राह्मण को कैद कर लिया। तहसीलदार का विचार था कि मेरे इस कर्म से महर्षि प्रसन्न होंगे,किन्तु जब उसने महर्षि ने यह बात बताई तो महर्षि अप्रसन्न हो गये और उन्होंने कह कि - ''मैं दुनिया को कैद कराने नहीं बल्कि उसे कैद से छुड़ाने आया हूँ। वह यदि अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता तो हम अपनी श्रेष्ठता क्यों छोड़ें?

    महर्षि का ईसाइयों के प्रति कैसा सदभाव था? ईसाइयों के गिरजाघरों के प्रति उनकी कैसी भावना थी? यह जानने के लिए एक घटना का उल्लेख करते है जो महर्षि के जीवन से सम्बंधित हैं - १८७६ के लगभग महर्षि बरेली पहुंचे। वहां उनके व्याख्यान होते थे। महर्षि का पादरी स्कॉट के साथ स्नेह सम्बन्ध था। वे नहीं आये तो महर्षि ने व्याख्यान के बाद पूछा कि भक्त स्कॉट क्यों नहीं आये? पता चला कि वे रविवार को गिरजाघर जाते हैं। महर्षि ने कहा कि चलो आज भक्त स्कॉट का गिरजाघर देख आएँ। महर्षि तीन चार सौ मनुष्यों के साथ गिरिजा में पहुंचे। महर्षि को आते देख पादरी स्कॉट वेदी पर से नीचे उतरकर आए और महर्षि को उपदेश देने के लिए प्रार्थना की। महर्षि ने उनके आग्रह पर वहाँ उपदेश दिया
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    महर्षि का मुसलमानों के प्रति भी बड़ा स्नेहपूर्ण व्यवहार था और अभिजात वर्ग के मुसलमान भी उनका आदर करते थे। १८७३ के आसपास की बात है- महर्षि अलीगढ पहुंचे। वहां मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ के संस्थापक और प्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर सैय्यद अहमद खां महर्षि की सेवा में प्रायः नित्य आया करते थे। एक दिन सैय्यद साहिब कई प्रतिष्ठित मुसलमानों और अंग्रेजों सहित महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए और अग्निहोत्र की उपयोगिता पर वार्तालाप होता रहा। १८७६ में दिल्ली में राजदरबार के अवसर पर महर्षि ने सर्वधर्म एकता का आयोजन किया। इस गोष्ठी में परस्पर सौहार्दपूर्ण वार्तालाप हुआ।

    लगभग १८७७ में महर्षि लाहौर पधारे। उनको लाहौर बुलाने में अधिक हाथ ब्रम्ह समाजियों का था। उन्होंने महर्षि के दो व्याख्यान अपने मन्दिर में कराए। प्रथम व्याख्यान 'वेद ईश्वरीय' विषय पर था और दूसरा 'पुनर्जन्म ज्ञान' पर। ये दोनों व्याख्यान ब्रम्ह समाज के मंतव्यों के विरुद्ध थे। इसलिए ब्रम्ह समाजी उनका विरोध करे लगे। महर्षि पुराणों का भी खण्डन करते थे, इसलिए जिस उद्यान में महर्षि निवास करते थे उसके मालिक ने भी उनका विरोध किया। फलतः महर्षि के भक्त जन उन्हें डॉक्टर रहीम खां की कोठी ले आए। यह कोठी भक्त छज्जू के चौबारे के पास थी। इस कोठी में महर्षि व्याख्यान देते और दूसरे दिन शंका समाधान करते थे। इसी कोठी में निवास करते हुए महर्षि ने आर्य समाज के संशोधित दस नियम बनाये तथा आर्य समाज लाहौर की स्थापना की स्थापना हुई जिसका पहला सत्संग भी यहीं हुआ। धन्य हैं महर्षि! और धन्य डॉ. रहीम खां जिन्होंने सर्वधर्म सदभाव का एक अनूठा उदाहरण हमारे सामने रखा।

    महर्षि जब जोधपुर में प्रचारार्थ पधारे थे तो वे राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बरकत उल्ला खां के दादा की कोठी में निवास करते थे। श्री बरकत उल्ला खां ने सर्वधर्म सदभाव के नाते उस कोठी को राष्ट्रीय स्मारक के रु में दान कर दिया। ऐसे ही विरले अभिजात्य सज्जनों के सौजन्य से सर्वधर्म एकता की आदर्श भावना परम्परा से चली आ रही है।

    महर्षि ने सर्वधर्म सदभाव का अभियान चलाया था और आर्य समाज इस अभियान को अब तक चलाता आ रहा है। इतना ही नहीं मुस्लिम वर्ग भी आर्य समाज के इस सौहार्दपूर्ण अभियान का आदर करते हैं। आर्य समाज स्थापना शताब्दी दिल्ली १९७५ तथा महर्षि दयानन्द निर्वाण शताब्दी अजमेर १९८३ के अवसर पर मुसलमानों ने शोभा यात्राओं के समय अपनी भावभीनी श्रद्धांज्जलि अर्पित की थी। प्रभु इस परम्परा को दोनों और से बने रखे। - विश्वनाथ शास्त्री

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    Maharishi Dayanand loved his principles, but this does not mean that he disregarded the principle of others. He was very tolerant. Even while reviewing the principles of mythology or idol worship of Hinduism from the classical point of view, they considered the Hindu religion as liberal due to the vastness of the heart. In one incident of his life, he reached Amritsar around 14. At the request of the commissioner there, Maharishi came to his bungalow.

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  • महर्षि दयानन्द की देश वन्दना

    महर्षि दयानन्द की देश वन्दना -

    आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में एक कर्त्तव्य बोध कराया है। यह बोध देश के प्रत्येक नागरिक के लिए धारण करने योग्य है। भला जब आर्यावर्त में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न जल खाया-पीया, अब भी खाते पीते हैं, तब अपने माता-पिता तथा पितामहादि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना, अंग्रेजी भाषा पढकर अभिमानी होकर झटिति एक अलग पन्थ चलाने में प्रवृत्त हुए मनुष्यों का स्थिर और वृद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता है?

    देश के प्रति समर्पित ऋषि की यह देश वन्दना बहुत सरल हृदय से लिखी गई है। उनकी इस वन्दना में कहीं कोई छल-कपट पक्षपात और तुष्टीकरण की गंध नहीं है।

    Maharishi Dayanand, the founder of Arya Samaj, has given us a sense of duty in Satyarth Prakash. This sense is worth imbibing for every citizen of the country. Well, when we were born in Aryavart and ate the food and water of this country, and even now we eat and drink it, then how can the work of people who leave the path of their parents and forefathers and lean more towards other foreign religions, become arrogant after studying English language and start following a different path, be stable and progressive?

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  • महर्षि दयानन्द के मन्तव्य - बच्चों का विश्वास कैसे हो

    महर्षि दयानन्द के मन्तव्य - बच्चों का विश्वास कैसे हो

    लार्ड मैकॉले के सिद्धान्तों के आधा पर जो शिक्षा स्कूलों में दी जा रही है वह शिक्षा नहीं है। यह शिक्षा बच्चों के विकास में सुधार न कर उनको कुपथ पर ले जा रही है। वे केवल भौतिक शिक्षा की ओर बढ़ रहे हैं। अपने माता-पिता, बूढ़ों का न वे आदर कर पाते हैं न ही उनकी सेवा सुश्रुषा में रूचि रखते है। उनके पास बैठना, बात करना तक भी उन्हें गवारा नहीं लगता। छोटी आयु में ही प्रेम, सेक्स, यौन शिक्षा की ओर आकृष्ट हो रहा है। इसेक अतिरिक्त कुछ नहीं जबकि बच्चे के जीवन निर्माण के लिए चारित्रिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।

    शिक्षा ग्रहण करने के लिए शिशु को तीन सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है। तीन गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है। माता, पिता, आचार्य। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है 'मातृमान, पितृमान, आचार्यवान पुरुषो वेद। स्वामी जी लिखते हैं वह बच्चा भाग्यवान है जिसके माता पिता सदाचारी, धार्मिक विचार वाले तथा सद्व्यवहारी है। बच्चे के निर्माण के लिए गर्भाधान संस्कार कराया जाता है तकि गर्भ से ही माता अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दे सके। शुद्ध और पवित्र विचार रखते हुए नशीली और वासना उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का सेवन न करे, अपितु स्वास्थ्य वर्द्धक, सुगति और सभ्यता देने वाली वस्तुओं का सेवन करें। क्योंकि माता के विचारों का प्रभाव बच्चे पर गर्भ से ही पड़ता है। वह अपने सदाचार और सद्व्यवहार का प्रभाव तब तक डालती रहे जब तक वह बच्चा पूर्ण रूपेण अपनी शिक्षा को प्राप्त न कर जाए।

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    भूत-प्रेत की कथाओं, पाप पाखण्ड से दूर रखें क्योंकि स्वामी दयानन्द जी इसके कट्टर विरोधी थे। यह बालक के विकास में घातक है। चरक की विधि तथा मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता का व्यवहार केसा होना चाहिए। माता स्वयं कैसा जीवन व्यतीत आकर और शिशु का पालन पोषण कैसे करे। इसका समाधान है कि माता प्रथम गुरु होने के नाते वह अपने बच्चे को संस्कारित, सभ्य तथा सुशिल बनाये ताकि वह अपने शरीर के किसी भी अंग का दुरूपयोग न करे। वाणी में नम्रता, उच्चारण शुद्ध और भाषा शुद्ध और स्पष्ट हो। बड़ों के साथ उचित व्यवहार, सम्मान, सेवा और आज्ञा का पालन करें। महर्षि अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने चाणक्य नीति की मान्यता को अक्षरशः सत्य बताते हुए कहा है- 
    माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।।
    वह माता बच्चों के पूर्ण रूप से शत्रु है जो अपने बच्चों को अच्छी विद्या नहीं दे पते वे बच्चे समाज द्वारा विद्वानों द्वारा ऐसे अपमानित होते है जैसे हंसों के बीच बगुला।

    दुरसा रूप गुरू पिता - पिता का कर्तव्य है बच्चो को शिक्षा देने का जो पांच वर्ष पश्चात प्रारम्भ होता है। वह बच्चों को नियंत्रण में रखें। बच्चों को चोरी करने से, झूट बोलने से दूर रखे। उनकी पढाई का पूरा ध्यान रखे। अपनी पढाई के साथ बच्चों का निरीक्षण भी करता रहे। उसे निर्देश देता रहे उनके साथ कुछ भी व्यतीत करे। उनके आचार व्यवहार को देखे। अपनी पवित्र कमाई से बच्चों का पालन पोषण करे। कर्तव्य है इसकी जानकारी उसे दे।

    तीसरा गुरू आचार्य - पिता द्वारा दी गई शिक्षा के पश्चात् बच्चे को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरूकुल के आचार्यों के पास भेज देना चाहिए या फिर से विद्यालय में भेज दिया जाये जहां बच्चों का वास्तविक चरित्र निर्माण हो सके। आचार्य व अध्यापक सुशिक्षित, विद्वान सदाचारी होने चाहिए। विद्यालय में उनकी नियुक्ति भली प्रकार से निरिक्षण करने के पश्चात् होनी चाहिए। वह अपने विषय की पूरी जानकारी रखता हो। महर्षि दयानन्द ने शिक्षा के सुधारको को प्रमुख माना।
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    शिक्षा के प्रति उनके मन्तव्य 

    १. सार्वजानिक शिक्षा :-सभी बच्चों को उच्च व निम्न जाति, गरीब व अमीर, पढ़ने का सामान अधिकार दिया जाए, समान पढ़ाया जाये किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं रखा जाये।

    २. पुत्रियों की शिक्षा :- पर अधिक बल दिया। यदि कन्या सुशिक्षित होगी तो अपने पतिगृह में जाकर अपने बच्चों व परिवार को पूर्ण रूप से समृद्ध करेगी। अतः पुत्रियों को उच्च से शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह परिवार, राष्ट्र और समाज का भला कर सके। अपने बच्चे का भविष्य बना सके।

    ३. राज्य की ओर से शिक्षा का प्रबन्ध :- राज्य सरकार का प्रमुख कर्तव्य है कि वह बच्चों के शिक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं ले माता-पिता को इससे मुक्त रखा जाये माता-पिता को केवल बच्चों को पढ़ाते समय कठोरता का व्यवहार करें। किसी भी प्रकार की ढील नहीं दें उनका स्वाभाव मन से दयालु हो वे उनके शुभचिन्तक हो।

    ४. सह शिक्षा :-राज्य में सह शिक्षा पर कड़ी पाबन्दी लगाई जाये। लड़के व लड़की के विद्यालयों पृथक व आबादी से काफी दुरी पर हो। एक साथ पढ़ने से योन शिक्षा और प्रेम की ओर दोनों आकर्षित होते है जोकि उनके भविष्य के लिए उचित नहीं है।

    ५. शूद्र शिक्षा : - शूद्रों को पढ़ाने के लिए भी महर्षि ने पूरी शक्ति के साथ समर्थन किया और प्रयास किया प्रत्येक जाति के बालकों को पढ़ने का अधिकार दिलाया। महर्षि ने पतन्जलि के महाभाष्य को मान्यता देते हुए कहा है कि बच्चों को नशीली वस्तुओं व अत्यन्त वासना प्रधान वस्तुओं से दूर रखा जाये ताकि पवित्र मन, शुद्ध ह्रदय वाले बने। उनके मन में अभद्र भावनायें न आएं। बड़ों से अभद्र व्यवहार न करें। वे अच्छे आचरण को ही स्वीकार करे। आलस्य से दूर रहें।
    ऋषि की शिक्षा व उनके सिद्धान्त सब बच्चों की सर्वागीण उन्नति कर सकते है। अतः इन्हीं उदेश्यों का आचरण करना चाहिए।

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    The Education that is being given in schools on half of Lord Macaulay's principles is not education. This education is not improving the development of children and taking them to the path. They are only moving towards physical education. They are neither able to respect their parents, old people nor are they interested in their service Sushrusha. They do not even think to sit near them and talk. Being attracted towards love, sex, sex education at a young age.

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  • मानव का स्वरूप

    मानव का स्वरूप
    आज तो मानव-मानव में स्वार्थ चेतना, न समझ कट्टरताओं और दुराग्रहों को देखकर मानव का विकृत स्वरूप ही प्रतिबिंबित हो रहा है आज तो लगता है यह संस्कृति का रूप-स्वरूप पूरी तरह परिवर्तित हो गया है। आज तो एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, सद्भावना, स्नेह, प्यार, नाम मात्र को भी नजर नहीं आता। फिर सोचते हैं कि विश्व में असंभव कुछ भी नहीं है, एक-न-एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब असंभव में भी डालेगा। मानव में जागरण होगा, और अपने पूर्ववत संस्कारों व संस्कृतियों को व्यवहार में लाने में प्रयासरत होगा।

  • शिक्षा की कमी

    शिक्षा की कमी

    विवाद में कोई तार्किक अपने प्रतिपक्षी की बोलती बंद कर सकता है; उसे निरुत्तर कर सकता है। इतने पर भी यह आवश्यक नहीं कि वह अपने विचार बदल ले। विवाद की पराजय को वह अपनी शिक्षा की कमी मान सकता है या विजेता की धूर्तता, पर उससे समहत होने और अपने विचार बदल लेने की मनःस्थिति में वह कभी नहीं होगा। जो बुद्धि द्वारा समझा या समझाया गया है; उसे स्वीकार कर ही लिया जाए, यह आवश्यक नहीं। यदि ऐसा रहा होता तो तार्किकों ने प्रतिपक्षी लोगों को कब का परास्त कर लिया होता।

  • सत्यार्थ प्रकाश ने जीवन की दिशा ही बदल दी

    सत्यार्थ प्रकाश ने जीवन की दिशा ही बदल दी

    लखनऊ में एक बार लोकमान्य तिलक के अपहरण की योजना गई। कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने हेतु तिलक लखनऊ स्टेशन पर उतरे। कांग्रेस के गरम व नरम दोनों दलों के लोग उनकी किसी भी तरह अपहरण करके अपने-अपने खेमे में लेजाकर जलूस निकालने की तैयारी कर चुके थे। लेकिन संख्या में अधिक होने के कारण नरम दल के लोगों ने रेल गाड़ी से उतरते ही तिलक जी को अपने कब्जे में ले लिया और। वहां एकत्र गरम दल के लोग तिलक को अपने कब्जे में लेने का कोई उपाय सोच ही रहे थे, कि अचानक एक युवक कार के आगे वाले पहिए के आगे लेट गया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा ''गाड़ी मेरे ऊपर से निकल के ले जाओं ! गाड़ी मेरे ऊपर से निकाल के ले जाओं!'' वह रोता-रोता चीख कर उपरोक्त वाक्य को बार-बार दोहरा रहा था। इतनी ही देर में गरम दल के लोग भी कार के आगे और पीछे लेट गए। गाड़ी न आगे चल सकती थी न पीछे। सबसे पहले आगे लेता हुआ युवक फुर्ती से खड़ा हुआ, उसने अन्य लोगों को संकेत किया और कुछ ही क्षणों में गरम दल के लोगों ने तिलक जी को गाड़ी से बाहर निकाला, उन्हें अपने हाथों पर उठाकर झुंड के बाहर लाये और वहां पहले से ही तैयारबग्घी में बैठा दिया । उस युवक ने बग्घी के घोड़ों को खोलकर अगल कर दिया। कुछ युवक घोड़ों की जगह स्वयं बग्घी को खींचने लगे। तिलक का यह जलूस अपने आप में अभूतपूर्व और ऐतिहासिक था। जो युवक गाड़ी के आगे लेटा था और रो-रोकर चिल्ला रहा था, वह था काकोरी काण्ड का नायक 'रामप्रसाद बिस्मिल।'

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    Ved Katha Pravachan - 28 | Explanation of Vedas | दिव्य मानव निर्माण की वैदिक योजना

    'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' प्रसिद्ध गीत के अमर गायक पं० राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म दिनांक ११ जून १८६७ ई० को शाहजहांपुर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। आर्य समाजी विद्वान् मुंशी इन्द्रजीत ने इनकी बचपन की बुरी आदंतो को छुड़ाकर इनमें नये संस्कारों की ज्योति जागृत की। इनको महर्षि दयानन्द का जीवन-चरित्र व 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ने को दिया। 'सत्यार्थ प्रकाश' ने बिस्मिल के जीवन की दिशा ही बदल दी। कुछ समय बाद बिस्मिल आर्य समाज के संन्यासी स्वामी सोमदेव के सम्पर्क में आए। स्वामी सोमदेव ने इस बालक में देश भक्ति के भावों की गंगा प्रवाहित कर दी। तब स्वामी सोमदेव ने फांसी की सजा की घोषणा की थी तब रामप्रसाद बिस्मिल के अन्दर क्रान्ति की भावना जाग उठी उन्होंने अपने गुरु स्वामी सोमदेव के सम्मुख प्रतिज्ञा की ''देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए वह अपना सर्वस्व भारत मां के चरणों में न्यौछावर कर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देंगे।'' गुरु का आशीर्वाद पाकर भारत माँ का शूर-सपूत अपने निश्चय को पूरा करने हेतु अवसर की तलाश में रहें लगा। सारे दिन आर्य समाज में भविष्य की योजना बनाते रहते।

    राम प्रसाद बिस्मिल ने प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ बख्शी द्वारा स्थापित 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन की सदस्यता ग्रहण कर ली। ब्रिटिश सत्ता से टक्कर लेने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी। एक बार की घटना है कि उन्होंने ग्वालियर के एक रिटायर्ड एस.पी. से कुछ राइफल एवं रिवाल्वर खरीदे। अब इन हथियारों को शाहजहाँपुर ले जाने की समस्या थी। बिस्मिल के पीछे पहले ही पुलिस लगी ही थी। अतः पकड़े जाने का अंदेसा था। बिस्मिल ने उन शस्त्रों को अशफाक उल्ला खाँ के पास ग्वालियर ही छोड़ा और वह शाहजहाँपुर आ गए। वहां से अपनी छोटी बहिन शास्त्री देवी को लेकर ग्वालियर आए। छोटी बहिन की दोनों टांगों में राइफल और पिस्तौलें बांधकर ऊपर से खपच्चे बांधकर फ्रैक्चर जैसी पट्टियां बांध दी। बहिन को दो-तीन लोग हाथों में उठाकर ट्रेन में लिटा-लिटा कर इलाज के लिए लखनऊ ले जाने का बहाना करते हुए शाहजहाँपुर पहुँच गए। देश के लिए ऐसे समर्पित थे बिस्मिल।

    जर्मनी से केशव चक्रवर्ती ने माउजर पिस्तौलों की पेटी का एक पार्सल भारतीय क्रांतिवीरों के लिए भारत भेजा था। उसे क्रांतिवीरों ने धन देकर कोलकत्ता बन्दरगाह से प्राप्त करना था। इसके लिए धन की तुरन्त आवश्यकता आ पड़ी। अतः बिस्मिल और उनके साथियों ने निश्चय किया कि सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर गाड़ी से सरकारी खजाना लूटा जाए। इसी हेतु दिनांक ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर स्टेशन से सात क्रांतिकारी गाड़ी पर चढ़े। काकोरी स्टेशन से तीन क्रांतिकारी चढ़े। इस प्रकार इस कार्य-योजना में बिस्मिल के अतिरिक्त राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, अश्फाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आजाद, बनवारी लाल (बाद में मुखविर बना) शचीन्द्र नाथ बक्शी, मुकन्दी लाल, केशव एवं मन्मथ नाथ गुप्त दस क्रांतिवीर शामिल थे। थोड़ी ही दूर ट्रेन चली होगी कि एक ने जेवरों का बक्सा स्टेशन पर ही छूट जाने का अभिनय किया और चेन खींचकर गाड़ी रुकवा ली। गाड़ी के रुकते ही एक दूसरे क्रांतिवीर ने गाड़ी से नीच उतरकर हवाई फायर किए और जोर से चिल्लाकर घोषणा की ''यात्रियों व रेलकर्मियों से निवेधन है कि वह कोई भी अपनी जगह से न हिले। यदि हिला तो गोलियों से भून दिया जाएगा। हम किसी को कुछ न कहेंगे। केवल सरकारी खज़ाना लूटकर चले जाएंगे।''
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    रेल में यधपि १४ लोगों पर बंदूकें थी दो पर पिस्तौलें। केवल एक गोरखे ने अपनी पिस्तौल का प्रयोग किया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने तुरंत अपनी पिस्तौल से उसका सर उड़ा दिया। जब तक खजाने वाला संदूक टूट नहीं गया, क्रांतिकारी लगातार गोलियाँ दागते रहे और चेतावनी देते रहे। गाड़ी में बैठे लोगों को लगा कि सैकड़ों डाकुओं के दल ने गाड़ी को घेरा हुआ है। अतः अन्य किसी ने भी अपने हथियार का प्रयोग नहीं किया। खजाने को लूटकर सभी लोग बच निकले। इस लूट में क्रांतिवीरों को आठ हजार छः सौ रुपया हाथ लगा। माउजर पिस्तौलों का पार्सल बन्दरगाह से छुड़ा लिया गया। सरकार ने सोचा भी न था कि क्रांतिकारियों के हौसले इतने बुलंद हो सकते हैं। इस घटना से सरकर को हिला दिया। ४४ लोगों को गिरफ्तार किया गया। चन्द्रशेखर आजाद भूमिगत रहे। शेष सभी पकडे गए। दो वर्ष तक मुकदमा चला। इस प्रसिद्ध काकोरी काण्ड में राजेंद्र नाथ लाहिड़ी ने १७ दिसम्बर व राम प्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला खाँ व ठाकुर रोशन सिंह ने १९ दिसम्बर को फांसी का फंदा चूमकर शहादत प्राप्त की। १५ लगों को १० से ५ वर्ष तक का कारावास हुआ। इन क्रान्तिवीरों की अंतिम इच्छा भी थी -

    कुछ आरजू नहीं है, आरजू है तो यह है। रख दे कोई जरा सी, खाके वतन कफन में। - रविचन्द्र गुप्ता


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    Pandit Ram Prasad Bismil, the immortal singer of the famous song 'Sarfaroshi Ki Tamanna Ab Hamare Dil Hai Hai', was born on 11 June 14 AD in a prestigious family of Shahjahanpur. Arya Samaji scholar Munshi Indrajit rescued the evil habits of his childhood and awakened the light of new values ​​in them. He was given the reading of Maharishi Dayanand's life-character and 'Satyarth Prakash'. 'Satyarth Prakash' changed the direction of Bismil's life.

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  • सद्गुणों के बीज

    सद्गुणों के बीज
    बच्चों में बोएँ सद्गुणों के बीज - अँगरेजी साहित्य के प्रसिद्ध कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की 'माई हार्ट लिप्स अप' नामक कविता की एक प्रसिद्ध पंक्ति है - दि चाइल्ड इस दि फादर ऑफ मैन।' इसका अर्थ है - बच्चा आदमी का पिता होता है या यों कहें कि बच्चा मनुष्य का पिता होता है। इस उक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहते हैं कि एक बच्चे में ही भविष्य का मनुष्य आकार लेता है।

  • समस्या समाधान का उपाय

    समस्या समाधान का उपाय

    हमें जीवन को नये आयाम देने और कुछ हटकर करने के लिये अपना नजरिया बदलना होगा। अन्धकार से लड़ने के लिये गली और मौहल्ले के हर मुहाने पर नन्हें-नन्हें दीपक जलाने होंगे। साहसी फैसला लेने के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी होगी। कोरे पत्तों को नहीं जड़ों को सींचने से समस्या का समाधान होगा। जीवन को सफल बनाने के लिये यह आवश्यक है कि आप स्थिति का सही विश्‍लेषण करके, उसके संदर्भ में सही पृष्ठभूमि बनाएं। हम जो भी महत्वपूर्ण निर्णय करने जा रहे हैं, यदि उनके संदर्भ में हमें पृष्ठभूमि की सही जानकारी नहीं है तो हमारे कार्य करने की दिशा गलत हो सकती है।

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  • समाज-विश्व

    समाज-विश्व
    प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ संसार से किसी-न-किसी प्रकार की स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। जिसके प्रति मोह रहता है, उसे अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है। इसमें तनिक-सा-व्यवधान उत्पन्न होने पर खीज-असंतोष का उद्वेग उमड़ता है। प्रेम में इस तरह की कोई बात नहीं। इसका अंकुरण निकट परिकर से होता है और विकसित, पल्लवित, पुष्पित होते हुए उसकी शाखाएँ, प्रशाखाएँ समस्त समाज-विश्व में फैल जाती हैं।

  • सम्बन्ध एक मिथ्या

    सम्बन्ध एक मिथ्या -

    केवल जन्म व मृत्यु के मध्य में ही सम्बन्ध प्रतीत हो रहा है। इसलिए यह सम्बन्ध भी मिथ्या है। जो सामान आज नहीं तो दस दिन बाद अवश्य अपमानपूर्वक छोड़ना पड़ेगा। उसे दस दिन पहले सम्मानपूर्वक क्यों न छोड़ दें? जिस परिवार को दस दिन बाद रोते हुए छोड़ना है उस परिवार को दस दिन पहले हंसते हुए क्यों न छोड़ दें?

    तो क्या परिवार को छोड़कर जंगल में चले जाना चाहिए?

    ऐसा तो नहीं किन्तु तन से सबके साथ रहते हुए, यथायोग्य सम्बन्ध रखते हुए, मन से सम्बन्ध तोड़ दो, वाणी से यह किसी से मत कहो कि तुम हमारे नहीं और हम तुम्हारे नहीं परन्तु अन्दर से यह निश्‍चय कर लो कि मैं किसी का नहीं, मेरा कोई नहीं और यदि किसी का बने बिना या किसी को अपना बनाए बिना न रहा जाए तो यह निश्‍चय करो कि मैं परमात्मा का हूँ, परमात्मा मेरा है। जैसे मुसाफिर, मुसाफिरखाने को सरकारी इमारत समझता है और दूसरे मुसाफिरों को कुछ समय का साथी समझता है वैसे ही तुम भी घर को मुसाफिरखाना समझो और परिवार को थोड़े समय के साथी समझो।

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  • सम्यक पुरुषार्थ

    सम्यक पुरुषार्थ
    एक बार मुक्ति प्राप्त कर लेने पर यह आत्मा अनंत काल तक मुक्ति में ही रहती है; क्योंकि इस जीव को संसार में जन्म-मरण कराने व सुख-दुःख देने के कारण जो कर्म-संस्कार होते हैं, उनका ही सर्वथा अभाव हो जाता है। भौतिक शरीर में रहते हुए भी वह जीवन्मुक्त रहता है और हर पल आनंदित रहता है। भौतिक शरीर का परित्याग कर देने के बाद भी जीवात्मा एक अनुपम, अतींद्रिय व सच्चे सुख, शाश्वत सुख की अनुभूति करता है। यह मुक्ति का मार्ग किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों के लिए ही नहीं, अपितु संसार के प्रत्येक प्राणी के लिए खुला हुआ है। केवल उसे सम्यक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है।

  • साधना का इतिहास

    साधना का इतिहास
    साधना का इतिहास ऐसे अनगिनत लोमहर्षक उदाहरणों का साक्षी है। वस्तुतः मन को शुद्ध करना अत्यंत दुष्कर कृत्य है, लेकिन साथ ही इस साधना समर का एक सत्य यह भी है कि यदि व्यक्ति दृढ़ता के साथ अपनी आत्मिक उन्नति के ध्येय को लेकर कृतसंकल्प हो जाए, अपने आदर्श पर डटा रहे और इच्छाशक्ति को लक्ष्यकेंद्रित रखे, तो मन की शक्ति बढ़ती है और वासना का अविजित क्षेत्र अपने अधिकार में आने लगता है।

  • सामूहिकता की भावना

    सामूहिकता की भावना
    मानव जीवन की सफलता के लिए जैसे व्यक्तिगत उन्नति और सत्प्रवृत्तियों को ग्रहण करने की आवश्यकता है, वहाँ समाज संगठन को सुदृढ़ बनाना और पारस्परिक सहयोग के द्वारा सामाजिक हित की बड़ी योजनाओं की पूर्ति करना भी अत्यावश्यक है। इसके लिए लोगों में पारस्परिक एकता, भाईचारे की मनोवृत्ति का उत्पन्न होना आवश्यक है। हमारे यहाँ होली, दीपावली, गंगा दशहरा आदि जो त्योहार और पर्व नियत किए गए हैं, उनका विशेष उद्देश्य यही है कि लोग परस्पर प्रेमपूर्वक मिलें और सामूहिकता की भावना को सुदृढ़ बनाएँ।

  • स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल एवं स्वतंत्रता आंदोलन - १

    स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल एवं स्वतंत्रता आंदोलन - १

    सन् १८९७ में धर्मवीर पंडित लेखराम जी शहीद हो गए और आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का पूरा दायित्व लाला मुंशीराम जी के कन्धों पर आ पड़ा। लाला मुंशीराम जी ने सन् १८९८ में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के अधिवेशन में महर्षि दयानन्द जी की शिक्षा संस्था जारी करने का प्रस्ताव पास कराया जिसे आगे चलकर गुरुकुल का नाम दिया गया।

    १६ दिसम्बर, १९०० के दिन इस गुरुकुल की स्थापना गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) की गई, परन्तु लाला मुंशीराम जी ने वेदों में पढ़ा था ''उपवहरे गिरीणां संगमें च नदीनां धियां विप्रो अजायत्। '' परमपिता परमात्मा ने मुंशीराम जी की सुन ली। जिला बिजनौर के नजीबाबाद के जमींदार अमन सिंह ने गंगातट पर बसा हुआ अपना कांगड़ी गांव उन्हें इस पविता काम के लिए दान दे दिया। अतः १९०२ में गुरुकुल गुजरांवाला से कांगड़ी में शिफ्ट कर दिया गया। और इसका नाम गुरुकुल कांगड़ी पद गया। गुरुकुल कांगड़ी शिक्षा के क्षेत्र में तो एक अदभुत परीक्षण था ही पर लाला मुंशीराम जी शिक्षा प्रसार के साथ-साथ धर्म प्रचार और समाज-सुधार विशेषतः अछूतोद्धार का कार्य अपने हाथ में लेकर उसको आगे बढ़ाने में जुट गए। इससे पहले कि महात्मा मुंशीराम जी सन्यास आश्रम में प्रवेश कर स्वामी श्रद्धानन्द बनकर गुरुकुल कांगड़ी को विदा कहते, कुछ ऐसी घटनाए घाटी जिसके कारण स्वामी श्रद्धानन्द जी राष्ट्रीय सेवहित स्वतंत्रता अंदोलन में जुटे दूसरे नेताओं के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगे।
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    १९१४ में जब गांधी जी अभी दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के लोगन की समस्या सुलझाने में लगे हुए थे, तब उन्हें भारत से अपने परम हितैषी एवं मित्र चारली एण्डरुज (सी.एफ.एण्डरुज )का एक पत्र मिला। पत्र में अन्य बातों के साथ गांधी जी को भारत लौटने पर तीन व्यक्तियों से अवश्य ही मिलने का आग्रह किया था। इन तीनों व्यक्तियों में एक थे गुरुकुल कांगड़ी के महात्मा मुंशीराम। गांधीजी अलगे वर्ष १४ जनवरी १९१५ शनिवार के दिन अफ्रीका से वापस मुंबई पहुंचे। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है - ''इस साल (१९१५) हरिद्वार में कुम्भ का मेला पड़ता था। उसमें आने की मेरी प्रबल इच्छा टी फिर मुझे महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन भी करने थे। अतः गाँधीजी ६ अप्रैल १९१५ मंगलवार की प्रातः गुरुकुल कांगड़ी देखने गए। वहां अपने महात्मा मुंशीराम से भेंट की और उनकी बैलगाड़ी से वापस हरिद्वार आ गए। ''फिर ८ अप्रैल को गुरुकुल के ब्रम्ह्चारियों की ओर से गांधीजी का अभिनन्दन किया गया। इस अवसर पर बोलते हुए महात्मा मुंशीराम जी ने कहा था - ''मुझे आशा है कि महात्मा गांधी जी भारत के लिए ज्योति स्तम्भ बन जायेंगे।'' उनकी वाणी आगे चलकर सिद्ध हो हुई। गांधी जी को ''महात्मा गांधी'' के नाम से सम्भोधन करने का शायद यह प्रथम अवसर था।

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    In 1897, Dharmaveer Pandit Lekharam Ji became a martyr and the entire responsibility of Arya Pratinidhi Sabha Punjab fell on the shoulders of Lala Munshiram Ji. Lala Munshiram ji passed the proposal of releasing education institution of Maharishi Dayanand ji in the session of Arya Pratinidhi Sabha Punjab in 1897 which was later renamed as Gurukul.

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  • स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल एवं स्वतंत्रता आंदोलन - २

    स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल एवं स्वतंत्रता आंदोलन - २

    १९१३ में १८ मार्च से २३ मार्च तक गांधी जी प्रायः हरिद्वार मुख्यतः गुरुकुल कांगड़ी में रहे। १८ मार्च को गुरुकुल कांगड़ी में अछूतोद्धार सम्मेलन हो रहा था। गांधी जी भी इस सम्मेलन में शामिल हुए। अपने अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि हिन्दुओं को प्रायश्चित की भावना से कार्य करना चाहिए। २० मार्च को गुरुकुल का पुरस्कार वितरण समारोह था। गांधी जी इस समारोह में शामिल हुए। आपने कहा पाठशाला का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण शिल्प, खुली हवा, आजादी तथा अपने लोगों की सेवा के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना चाहिए। इसी दिन गुरुकुल कांगड़ी के वार्षिक उत्सव में उन्होने एक मार्मिक भाषण दिया। उन्होंने उचित धार्मिक भावना हमारी सबसे बड़ी तात्कालिक आवयश्यकता है। हमारी धार्मिक भावना सुप्त है और हम लोग इस कारण हमेशा भयभीत बने रहते हैं।

    २३ मार्च को उनकी तबियत ठीक न होने पर भी आर्यसमाज भवन हरिद्वार में उन्होंने दयानन्द स्कूल के विद्यार्थियों के सामने एक छोटा सा भाषण देते हुए कहा कि अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनाना चाहिए, तभी तो वे देश के प्रति सच्चे बन सकते हैं। गुरुकुल कांगड़ी के महात्मा मुंशीराम के साथ मार्च १९१६ में महात्मा गांधी जी की मुलाकात शायद अंतिम मुलाकात थी, क्योंकि अगले वर्ष १९१७ में ही महात्मा मुंशीराम जी ने सन्यांस आश्रम में प्रवेश किया और वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। संन्यासी बन जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी केवल गुरुकुल कांगड़ी में न रहकर सकल मानव जाति के बन गए। अपने जान सेवा विशेषकर राष्ट्रीय सेवा में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। महात्मा गांधी जी के आग्रह पर आपने कांग्रेस को सहयोग देना भी स्वीकार लिया। १९१८ में गढ़वाल (वर्तमान उत्तरांचल) में अकाल पद गया। उन दिनों पहला विश्वयुद्ध चल रहा था। अतः भारत की अंग्रेज सरकार का तो अपना राज सिंहासन ही डांवाडोल था।
    गढ़वाल की अकाल पीड़ित जनता की और ध्यान देने के लिए न उनके पास समय था और न ही सरकार इसकी आवयश्कता ही समझती थी। सरकार का तो यत्न था कि भारत की जनता को यत्न गढ़वाल अकाल की खबर तक न हो, परन्तु स्वामी श्रद्धानन्दजी जी को इस अकाल का पता चला तो उन्होंने अपने अखबार ''सत्यधर्म प्रचारक'' इस अकाल का पूरा विवरण लिखकर जनता से सहायता की अपील की। स्वामी जी की अपील पढ़कर लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि धन पानी की तरह बरसने लगा। स्वामी जी अपने साथियों को लेकर गढ़वाल पहुंच गए और सरकारी विरोध बाधाओं की परवाह न करते हुए दुःख और विवश जनता की सेवा में जुट गए।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan -20 | Introduction to the Vedas | धर्म की कसौटी - सबका कल्याण

    १९१९ का वर्ष भारत के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष था। विश्वयुद्ध में बुरी तरह फंसी ब्रतानवी सरकार ने भारत से धन और जन की सहायता प्राप्त करते हुए भारत की जनता को आश्वासन दिया था कि युद्ध जीत लेने के पश्चात अंग्रेजी सरकार भारत को आजाद कर देगी। पर युद्ध समाप्त होते ही विदेशी सरकार ने भारत भर में रोलट एक्ट लागू कर दिया। इस विश्वासघात के कारण जनता जनार्दन में असंतोष व द्वेष फ़ैल गया। महात्मा गांधी ने तंग आकर रौलेट एक्ट के विरुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह की घोषणा कर दी। तब मातृभूमि की पुकार सुनकर राष्ट्रहित के लिए अपनी आहुति देने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी को चुना गया। दिल्ली में सत्याग्रह कमेटी का गठन किया गया, जिसका प्रधान स्वामी श्रद्धानन्द जी को चुना गया। कमेटी ने ३० मार्च की सायं को स्वामी जी की अध्यक्षता में एक बैठक हुई। अलगे दिन ३० मार्च को दिल्ली भर में हड़ताल हुई। ३० मार्च १९१९ जब दिल्ली की जनता का नेतृत्व करते हुए वे चांदनी चौक के घंटाघर के निकट पहुंचे तो गोरखा सिपाहियों ने अपने बंदूकों की संगीने स्वामी जी की ओर तानते हुए कहा - ''हट जाओ नहीं तो छेद देंगे।'' यह सुनकर स्वामी जी एक कदम और आगे बढे गए। अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी। स्वामी जी ने बड़े ऊंचे स्वर में कहा - ''चलाओ गोली'' और वही खड़े रहे। वौ सैनिक स्वामी जी पर गोली चलाने की साहस नहीं जुटा सके। ४ अप्रैल, १९१९ को जामा मस्जिद दिल्ली में उसी सप्ताह अंगेजी सिपाहियों की गोलियों से शहीद होने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक शोक सभा का आयोजन किया गया। शहीद होने वाले ५ युवकों में तीन हिन्दुओं और दो मुसलमान युवक थे।
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    अन्य लोगों के साथ स्वमी श्रद्धानन्द जी को विशेष रूप से श्रद्धांजलि देने के लिए बुलाया गया। मस्जिद के मिम्बर पर खड़े होकर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपना भाषण वेदमंत्र के उच्चारण से आरम्भ किया। स्वामी जी के विचार सुनकर उपस्थित जन समूह देश भक्ति के नशे में झूम उठा। जामा मस्जिद की मिम्बर से भाषण देने वाले पहले तथा अंतिम गैर मुस्लिम व्यक्ति केवल मात्र स्वामी श्रद्धानन्द जी ही हुए हैं। उसी वर्ष अमृतसर में जलियांवाले बाग़ का खुनी काण्ड घटित हो गया। कांग्रेस का सालाना अधिवेशन अमृतसर में किया जाना असम्भव लगने लगा था, तब स्वामी जी ने इसका सारा दायित्व समिति अध्यक्ष बना दिया गया। अमृतसर में कांग्रेस का १९१९ में सालाना अधिवेशन सफलता पूर्वक कराना और स्वागत अध्यक्ष के पद से प्रथम बार हिन्दी भाषा में स्वागत भाषण करना स्वामी श्रद्धानन्द जैसे निर्भिक पुरुष के लिए ही सम्भव था।
    सितम्बर १९२२ में सिखों ने अंग्रेजी सरकार की दमन नीति के विरुद्ध ''गुरु के ब्याज'' का मोर्चा आरम्भ कर दिया। स्वामी श्रद्धानन्द जी अकालियों को अपना सहयोग और आशीर्वाद देने के लिए दिली से चलकर अमृतसर पहुंच गए। वहां उन्होंने अकाल तख्त के निकट हुई सभा में जो भाषण दिया। उससे चिढ़कर उस समय की पंजाब सरकार ने आपको जेल में बन्द कर दिया।  एक साल चार महीने की जेल यात्रा पूरी कर दिसम्बर १९२३ में स्वामी जी को रिहा किया गया। - तरसेम कुमार आर्य

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    The year 1919 was a very important year in the history of India. The British government, which was badly trapped in the World War, while receiving the help of money and people from India, assured the people of India that the British government would liberate India after winning the war. But as soon as the war ended, the foreign government implemented the Rowlatt Act across India. This betrayal led to dissatisfaction and malice in Janata Janardhana. Mahatma Gandhi got fed up and declared non-violent satyagraha against the Rowlatt Act. 

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  • हिंदी भाषा की महत्ता

    हिंदी भाषा की महत्ता
    वर्तमान स्थिति इतनी संवेदनशील है कि भाषा के प्रश्न को गैरराजनीतिक ढंग से सोचना ही संभव नहीं प्रतीत होता है। हिंदी हमारी संस्कृति में रची-बसी है, रंगों-रंगो में घुली-मिली हुई है। यह एक विशाल समाज की भाषा है। बहुसंख्यक नागरिकों से संपर्क के लिए हिंदी अनिवार्य है। इसीलिए अपने देश में एक स्विस बहुराष्ट्रीय कंपनी हिंदी सिखाने का व्यवसाय कर रही है। इसके अतिरिक्त अमेरिका सहित यूरोप के कई देश हिंदी भाषा सीखने का प्रयास कर रहे हैं। यही कारण है कि टीवी पर विदेशी चैनल भी हिंदी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। आखिरकार उन्हें अपने उत्पाद के तकनीकी महत्व, जरूरी सूचनाएँ, उत्पादों का विज्ञापन हिंदी भाषी लोगों के बीच में ही करना है। यह हिंदी भाषा की महत्ता को रेखांकित करता है।

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    सम्बन्ध एक मिथ्या - केवल जन्म व मृत्यु के मध्य में ही सम्बन्ध प्रतीत हो रहा है। इसलिए यह सम्बन्ध भी मिथ्या है। जो सामान आज नहीं तो दस दिन बाद अवश्य अपमानपूर्वक छोड़ना पड़ेगा। उसे दस दिन पहले सम्मानपूर्वक क्यों न छोड़ दें? जिस परिवार को दस दिन बाद रोते हुए छोड़ना है उस परिवार को दस दिन पहले हंसते हुए क्यों न छोड़ दें? तो क्या...

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