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महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १ 

भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब महर्षि दयानन्द ने अपने व्याख्यानों, शास्त्रार्थों और ग्रन्थों के द्वारा विदेशी धर्मों का खण्डन किया। भारतीय सम्प्रदाय और धर्म तो एक दूसरे का खण्डन करते ही रहते थे। शाक्त, शैव, वैष्णव सम्प्रदाय परस्पर एक दूसरे का खण्डन करते रहे हैं। आद्य शंकराचार्य ने जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त कर वैदिक धर्म की स्थापना की। उनके प्रचार और शस्त्रार्थों से बौद्ध धर्म तो भारत में समाप्तप्राय हो गया। किन्तु मतखण्डन पूर्वक स्वमत स्थापना की परम्परा तो भारत में आदि काल से चली आ रही है।

महर्षि दयानन्द ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों का एक समान विधिवत् खण्डन किया है। इससे भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों के दुराग्रही अन्धविश्वासी लोगों में कुछ तनाव की भावना आई। इससे कुछ लोगों में यह धारणा बन गई है कि महर्षि दयानन्द ने खण्डन मार्ग पर चलकर दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति सदभाव को छोड़ वैमनस्य का मार्ग अपनाया। है। इससे भारत के विविध धर्मो के अनुयायियों के बीच तनाव बढ़ा है। अब हम कुछेक पक्तियों में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे कि क्या महर्षि दयानन्द ने खण्डन का मार्ग अपना कर तनाव उत्पन्न किया है अथवा धर्म के इतिहास में एक नै जागृति उत्पन्न की है और प्रत्येक धर्म को वैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का यत्न किया है, सभी धर्मो को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है?

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की रचना बड़े शुद्ध भाव और सत्यान्वेषण की दृष्टि से की है। वे सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मत में हैं वे पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धांत अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल सबके मत में है उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें है उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें बर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इन हानि ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है- सब मनुष्यों को दुख सागर में डूबा दिया।'' महर्षि पुनः लिखते हैं- 'यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसे ही दूसरे देशस्थ या मतोन्नति वालों के साथ भी बर्तता हूँ। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में बर्तता हूँ वैसा विदेशियों के साथ भी तथा विषय में बर्तता को बर्तना योग्य है।

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महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की उत्तरार्ध अनुभूमिका में एक सार्वभौम मत का प्रवर्तन करने के लिए लिखते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्ध वाद नहीं छूटेगा तब तक अन्योअन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिए यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ने ही सबको विरोध जल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहे तो अभी ऐक्य मत हो जाय।

शास्त्रार्थ परम्परा और सत्यान्वेषण का समर्थन करते हुए मर्हिष दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की अनुभूमिका-२ में बारहवाँ समुल्लास आरम्भ करने से पहले लिखते हैं जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद या लेख न किया जाय तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता तभी विद्वानों को महा अंधकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुख्य काम है।
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सत्यार्थप्रकाश के विद्वानों से हमने यह सिद्ध करे का प्रयास किया है कि सत्यासत्य के निर्णय के लिए प्रीति से शास्त्रार्थ परम्परा को चलाना परम आवश्यक है और इसी दृष्टी से महर्षि ने अपने समय में प्रचलित सभी मतमतान्तरों की समीक्षा की है। अब हम महर्षि की जीवनी की ओर आते हैं और यह देखने का यत्न करते हैं कि उनका विविध धर्मो के अनुयायिओं के प्रति कैसा व्यवहार था। महर्षि सन्यासी होने के नाते ''सर्वभूतहिते रतः'' (सब प्राणियों का कल्याण करने वाले थे ) वे 'शठे शाठ्यं समाचरेत्'- दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार-सिद्धान्त को मानाने वाले नहीं थे। वे तो दुष्टों के प्रति भी सज्जनता का व्यवहार करते थे। वे कहा करते थे - यदि दुष्ट अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ते तो सज्जन अपनी सज्जनता को क्यों छोड़े? किसी कवी ने सज्जन का बड़ा सुन्दर लक्षण किया है:- 

ते साधवः सुजन्मानस्तैरीयं भूषिता धरा। अपकारिषु भूतेषु ये भवन्त्युपकारिणः||
उन सज्जनों का जन्म लेना सार्थक है और ऐसे सज्जनों से धरती शोभायमान होती है - जो दुष्टों का भी उपकार करते हैं। सच पूछिए तो महर्षि ऐसे ही सज्जन थे।
महर्षि दयानन्द ''वसुधैय कुटुम्भकम'' को मानाने वाले थे। वे समस्त संसार को अपना परिवार समझते थे। उनके लिए अपने-पराये नाम की कोई बात नहीं थी। उन्होंने सभी धर्मो के आचार्यों को एक मंच पर लाने का यत्न किया। उनकी जीवनी का एक प्रसंग यह है:- दिसम्बर १८७६ में दिल्ली में राजदरबार हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के महोत्सव के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा के महोत्सव हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा होने वाली थी। उसके लिए सभी राजे-महाराजे और प्रतिष्ठित नागरिक राज-निमंत्रण से वहाँ एकत्र हो रहे थे। कहा जाता है कि महाराजा इंदौर ने ऐसे अवसर पर धर्म-प्रचार करे के लिए महरिष को निमन्त्रित किया था। वे राजमण्डल में भी उनका भाषण कराना चाहते थे।

राजदरबार के अवसर पर महर्षि के सत्संग का लाभ उच्चकोटि के लोगों ने उठाया। महर्षि तो चाहते थे कि राजाओं, महाराजाओं की सभा करके सब आर्यो में एक धर्म और एकता का तांगा पिरो दिया जाय परन्तु अनेक कारणों से इनमे सफलता न होते देख एक दिन महर्षि ने अपने स्थान पर भारत के भिन्न-भिन्न मतों और जातीय नेताओं की एक सभा बुलाई। उनके निमन्त्रण पर पंजाब के प्रसिद्ध सुधारक कन्हैयालाल जी अलखधारी, श्रीयुत नवीनचन्द्रराय, श्री हरिश्चंद्र चिंतामणि, सर सैय्यद अहमद खां, श्री केशवचन्द्र सेन और श्री इंद्रमन जी- ये छह सज्जन वहाँ पधारे। वहाँ महर्षि ने यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि हम भारतवासी सब परस्पर एक मत होकर एक ही रीती से देश का सुधार करें तो आशा है भारत देश सुधर जावेगा, किन्तु कई मौलिक मतभेद होने के कारण वे सब एकता के सूत्र में सम्बद्ध न हो सके। - विश्वनाथ शास्त्री

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This was the first time in Indian history when Maharishi Dayanand repudiated foreign religions through his lectures, lectures and texts. Indian sects and religions used to contradict each other. The Shakta, Shaiva and Vaishnava sects have been contradicting each other. Adya Shankaracharya debated with the Jains and the Buddhists and disbanded their religions and defeated them and disbanded their religions and defeated them and established the Vedic religion. 

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