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  • ईश्वर में अविश्वास क्यों - १

    ईश्वर में अविश्वास क्यों - १

    शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी - शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी का जन्म रामनवमी सावत् १९३८ को मुंशी छोटेलाल के घर नीमच मध्यप्रेश में हुआ। इनकी मेट्रिक तक की शिका इंदौर में हुई। १८ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया, जो जीवन निर्वाह के लिए इन्होंने नौकरी कर ली। उसे छोड़कर कुछ समय पश्चात अपने ससुर की दुकान में स्वर्णकारीगर का कार्य करने लगे। इसमें उन्हें अच्छी सफलता और लोकप्रियता प्राप्त हुई। ३६ वर्ष की आयु में इनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया तब समाज एवं परिवार का बहुत दबाव दूसरे विवाह के लिए पड़ा पर यब उन्होंने विवाह से सर्वथा इंकार कर दिया और अपना अधिक समय धर्मग्रंथो के अध्ययन में लगाने लगे।

    उन दिनों दिल्ली के चांदनी चौक के फुहारे पर दो मौलवी और ईसाई अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। पं. रामचंद्र जी उनके व्याख्यानों में हिन्दू धर्म पर आक्षेपों को सुनकर अपने ऊपर ग्लानि करने लगते। अतः इन्होंने उनके प्रचार का मुकाबला करने के लिए उसी स्थान पर नियमित रूप से व्याख्यान देना शुरू किया। तब लोग इनके उपदेशों से प्रभावित होते चले गये और मौलवी पादरियों के व्याख्यान का प्रभाव नगण्य होता चला गया। इनके व्याख्यानों में इतनी भीड़ होने लगी कि रास्ता ही जाम हो जाता। तब पुलिस ने इनके व्याख्यान के लिए गांधी ग्राउंड निश्चित कर दिया। वहां १४ वर्ष तक इनके निरंतर व्याख्यान होते रहे शनैः शनैः आर्यसमाज के श्रेष्ठ वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हो गये और सारे देश में व्याख्यान और शास्त्रार्थ के लिए जाने लगे। हैदराबाद का निजाम तो इनके व्याख्यानों से हिल गया था। इन्होंने कई ग्रन्थ लिखे हैं। इनके लेखों व्याख्यानों का संग्रह रामचंद्र देहलवी लेखवाली प्रसिद्ध है। अच्छी आयु भोगकर २ फरवरी १९६८ में दिल्ली में इनका स्वर्गवास हुआ।
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    संपादक - आजकल कुछ मित्रादि अथवा दूसरे व्यक्ति जब मुझसे मिलते हैं तो मुझसे प्रायः यह प्रश्न किया करते हैं, क्या कारन है कि ईश्वर के अस्तित्व के विषय में इतने भाषण होते हैं फिर भी लोगों का ईश्वर में विश्वास समाप्त होता जा रहा है ?'' बात सत्य है और मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि लोगों का ईश्वर में अविश्वास बढ़ता जा रहा है। आज ईश्वर में अविश्वास क्यों बढ़ता जा रहा है, इसके कारण हैं ? इसी विषय पर विचार रखूंगा।

    १. परिवार में ईश्वरभक्ति या पूजा का न किया जाना- आजकल परिवारों में न ईश्वरभक्ति है न ईश्वर आराधना किया जाता है, संध्या, अग्निहोत्र आदि की ओर भी कोई ध्यान नहीं है। इसके न होने के कारण ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास समाप्त होता जा रहा है। जहां हर समय रडियो बजता है, सिनेमा के गाने गाये जाते हैं और अल्लाह से ज्यादा नम्बर सुरैया का है, वहां ईश्वर को कौन पूछता है ? जैसा घर का वातावरण होता है वैसा ही प्रभाव पड़ता है। घर में ईश्वरीय भक्ति या पूजा न होने के कारण ईश्वर को भूल जाते हैं, ईश्वर का विचार ही नहीं रहता। ईश्वर में आस्था और विश्वास उत्पन्न करे के लिए ईश्वरभक्ति और पूजा जारी रहनी चाहिए।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा -18 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म की अनिवार्यता एवं सुख

    २. ईश्वर को ऐसे रूप में रखना जो समझ में न आये - ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, सर्व्यापक है, परन्तु सम्प्रदायी लोगों ने उसको साधारण जनता के सामने उल्टे ढंग से रखा है। सम्प्रदायी लोगों के सामने रख दिया। इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं क्योंकि परमात्मा तो सबको ज्ञान देता है। जब कोई बुरा कर्म करने लगता है तो उसे उस कार्य को करते भय, शंका और लज्जा होती है, परन्तु उस इस ज्ञान को लेता कोई कोई है। जैसे मच्छर सारे में 'पिन-पिन' करता है परन्तु सुनाई उस समय देता है जब वह कान के पास आता है। सम्प्रदायी लोगों ने अपने अज्ञान के कारण मकान के एक आले में गणेश मूर्ति ईश्वर घोषित कर दिया। परन्तु क्या गणेश ईश्वर हो सकता है? कदापि नहीं। क्या हाथी का सिर कभी किसी बच्चे के सिर पर आ सकता है? ऐसी बातों से अविश्वास तो होगा ही। महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में मूर्तिपूजा को अवैदिक बताते हुए इसके खंडन में १६ युक्तियां दी हैं।

    ३. बहुत प्रार्थना करने पर भी इच्छा की पूर्ति न होना- कभी कभी ऐसा होता है कि बहुत बार प्रार्थना कर पर भी इच्छा पूरी नहीं होती। इससे ईश्वर में अविश्वास उत्पन्न होता है। तब लोगों की इच्छा पूरी नहीं होती तो वे कहते हैं कि परमात्मा अपने पुत्र जीवात्मा की इच्छा पूरी करने में (Miserably fail) बुरी तरह फैल हो गया। परन्तु यह बात ठीक नहीं है
    प्रार्थना का फल इच्छा की पूर्ति नहीं अपितु प्रार्थना का फल है अभिमान का नाश, उत्साह की वृद्धि और सहायता का मिलना। कभी मनुष्य किसी कठिनाई कार्य को कर लेता है तो उसकी अपनी शक्ति का अभिमान हो जाता है परन्तु जब वह सोचता है कि ईश्वर अधिक शक्तिशाली है तो उसका अभिमान चूर हो जाता है। जब मनुष्य का ईश्वर में पूर्ण विश्वास होता है तो उसमें उत्साह की वृद्धि होती है और कार्य करते हुए उसमे सहायता भी प्राप्त होती है।

    ४. भगवान जागरूक नहीं, प्रमाद में पड़ा हुआ है -पुलिस कितनी सतर्क है। दिन का तो कहना ही क्या, रात में भी चोर और डाकुओं को पकड़ती है, किन्तु ईश्वर कुछ नहीं करता इसलिए प्रमादी है और उसके प्रमादी होने से ही लोगों में ईश्वर अविश्वास बढ़ता जा रहा है।

    समाधान - यहां एक ही बात के दो हिस्से कर दिये हैं। गवर्नमेण्ट परमात्मा का ही प्रबंध है। वह ईश्वर के कार्य में सहायक है। ईश्वर सब कुछ देखता है परन्तु सब कुछ नहीं कर सकता और सब कुछ करना आवश्यक भी नहीं। परमात्मा सदा जागरूक रहता है, वह प्रमादी कदापि नहीं हो सकता। - शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी

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    Shastraartha Maharathi Pt. Ramchandra Dehalvi - Shastharth Maharthi Pt. Ramachandra Dehalvi was born in Ramnavami Savat 1936 in Neemuch Madhya Pradesh, home of Munshi Chhotalal. His metric till Shika took place in Indore. He got married at the age of 14, who took a job for a living. After leaving him, after some time, he started working as a goldsmith in his father-in-law's shop. In this he gained good success and popularity.

     

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  • ईश्वर में अविश्वास क्यों - २

    ईश्वर में अविश्वास क्यों - २

    ५. किसी प्रिय व्यक्ति का नाश हो जाना या मर जाना- जब किसी व्यक्ति का कोई प्रिय सम्बन्धी मर जाता है तो उसे ईश्वर में अविश्वास हो जाता है। एक पीर जी की घरवाली मर गई तो कहने लगा, ''तेरा क्या गया, मेरा घर बिगड़ गया। इन बच्चों को तू पालेगा क्या ?''

    समाधान - जब ईश्वर की और से विपत्ति आती है तो समझना चाहिए कि इसमें हमारी भलाई है क्योंकि विपत्ति मनुष्य को ऊंचा उठाती हैं। संसार के महापुरुषों पर विपत्तियां आई हैं। विपत्तियां तो प्रभु की याद दिलाने के लिए आती हैं, परन्तु लोग फिर भी ईश्वर को भूल जाते हैं। मृत्यु क्या है? प्रकृति और जीवात्मा के मिलाप का नाम जन्म और प्रकृति तथा जीवात्मा के वियोग का नाम मृत्यु है। जो उत्पन्न हुआ है, वह मरेगा अवश्य। योगेश्वर कृष्ण ने भी गीता में इस ही कहा है - जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च || 

    जो उत्पन्न हुआ है वह अवश्य मरेगा और जो मरेगा उसका जन्म भी अवश्य होगा। जब जन्म के पीछे मृत्यु और मृत्यु के पीछे जन्म लगा हुआ है तो घबराहट और निराशा किसलिए?
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    ६. पापियों को सुख और पुण्यात्माओं को दुःख में देखकर ईश्वर में अविश्वास पैदा होता है। 

    समाधानपापियों को सुख में और पुण्यात्माओंको दुःख में देखकर लोग कारण और कार्य का सम्बन्ध लगा लेते हैं। इसी उल्टी धारणा से ईश्वर में अविश्वास उत्पन्न होता है। एक व्यक्ति कर्म तो अच्छा कर रहा है और उसका फल उसे दुःख मिले, यह कदापि नहीं हो सकता। अच्छा कर्म करते हए दुःख आ गया यह बात तो ठीक है, परन्तु यह कार्य और कारण (cause and effect) का सम्बन्ध नहीं है। दूसरी ओर एक व्यक्ति कार्य बुरा कर रहा है और उसे फल अच्छा मिल जाये, यह भी ठीक नहीं। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। एक व्यक्ति ने चोरी की और फिर सन्ध्या करने लगा। पुलिस आई और उसे पकड़कर ले गई। इस व्यक्ति को सन्ध्या के कारण नहीं पकड़ा गया। पापियों को सुख और पुण्यत्माओं का दुःख पूर्व जन्म के कर्मों के कारण है।

    ७. घातक का न पकड़ा जाना और निर्दोष का फंस जाना - कभी कभी ऐसा होता है कि कत्ल करने वाला बच जाता है और निर्दोष व्यक्ति फंस जाता है तो लोग कहते है कि यह क्या प्रबंध है?

    समाधान- यह ठीक है कि कभी-कभी निर्दोष व्यक्ति भी फंस जाते हैं। फंसने वाला व्यक्ति निर्दोष अवश्य है परन्तु उसका पहला कोई ऐसा कर्म हो सकता है जिसक दंड उसे भोगना शेष हो और बहुत से व्यक्ति पकडे जाने के पश्चात छूट भी जाते हैं।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा -19  | मानवता ही मनुष्य का धर्म  | introduction to vedas & Dharma

    ८. विद्वानों का निर्धन और मूर्खों का धनी होना - यह भी ईश्वर अविश्वास का एक कारण है। परन्तु सभी विद्वान् निर्धन हो और सभी मुर्ख धनी हो यह बात गलत है। स्वामी दर्शनानन्द जी भूतपूर्व श्री कृपाराम जी अदभुत तार्किक और विद्वान् होते हुए भी बहुत धनवान थे ऐसे अनेक उदाहरण हैं।

    ९. भगवान के कामों में कोई व्यवस्था नहीं जैसी मनुष्य के कार्यों में है- भगवान की रचना में कोई क्रम नहीं है। एक बाग और पहाड़ को ले लो। बाग में नींबू की लाइन एक ओर, संतरे की लाइन एक ओर और आम के वृक्ष अलग लाइन में प्रत्येक वस्तु एक एक नियम में होगी। इसेक विपरीत पहाड़ पर एक वृक्ष यहां, एक वृक्ष वहां, कोई कहीं और कोई कहीं, किसी प्रकार का कोई क्रम नहीं है।

    समाधान- परमात्मा की सृष्टि में क्रम है और अत्यन्त उत्कृष्ट क्रम है। परमात्मा की सृष्टिरचना में क्रम न मानना ऐसा ही है जैसे एक चींटी मनुष्य के ऊपर चढ़ जाये और पेट और छाती के ऊपर जाकर सोचे, यह बड़ा अच्छा मैदान है, फिर ऊपर चलकर दाढ़ी और मूछों में पहुंच जाये तो कहे यहां तो बड़ा भारी जंगल है, नाक के छिद्रों पर आकर कहे कि यहां तो छिद्र हो रहे हैं और ऊपर चढ़कर आँखों के गड्ढों में देखकर कहे यहां तो बड़ी उबड़-खाबड़ जगह है। इस प्रकार एक चींटी की दृष्टि में यह शरीर एक बेढंगा है। कहीं मैदान, कहीं जंगल, कहीं छिद्र है और कहीं उबड़-खाबड़ है परन्तु किसी शरीरविशेषज्ञ से पूछिये तो वह कहेगा कि यह तो प्रभु की सर्वोत्कृष्ट रचना है। - शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी

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    When the calamity comes from God, then it should be understood that it is in our best because the calamity lifts man. Plagues have come on the great men of the world. Plagues come to remind God, but people still forget God. What is death? The name of the reconciliation of nature and soul is birth and the name of separation of nature and soul is death. What has been born will die. Yogeshwar Krishna has also said this in the Gita.

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  • जीवन यात्रा के साथ विश्राम

    जीवन यात्रा के साथ विश्राम
    जीवन यात्रा के साथ विश्राम भी जरूरी - जीवनयात्रा में तन-मन की थकान स्वाभाविक है। अधिक श्रम, पारिस्थितिकी दबाव या तनाव के कारण शरीर व मन पर अत्यधिक खिंच-तान करने की स्थिति में हमारी दैनिकचर्या प्रभावित होती है। इसके लिए विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। जीवन-साधना में नींद के साथ विश्राम तन-मन को तरोताजा कर देता है और कार्य को एकाग्रचित होकर करना संभव बनाता है। इसलिए जीवनशैली में विश्राम को स्थान देना महत्वपूर्ण हो जाता है। 

  • दहेज प्रथा एक सामाजिक अभिशाप

    दहेज प्रथा एक सामाजिक अभिशाप

    दहेज रूपी भयंकर अजगर से दो परिवार नष्ट हो जाते हैं। जिनके हृदय का टुकड़ा कन्या जली, वो परिवार तो नष्ट हुआ ही, जिन्होंने जला डाला वे भी उम्र भर जेल की चक्की पीसते हैं। जिन्दा मर जाना चाहते हैं, परन्तु मौत तो तब आएगी जब पाप का फल पूरा भोग लेंगे।

    बहुएं जलाने का ९५ प्रतिशत कलंक माताओं के माथे ही लगता है क्योंकि पुरुषों को इतना ज्ञान नहीं होता कि दहेज में क्या कम कीमत का आया और क्या महंगा आया। मातायें ही एक-एक चीज साड़ी, जेवर इत्यादि उठा-उठाकर पति को दिखाती हैं कि ये वस्त्र तो पहनने के लायक ही नहीं हैं, जेवर बहुत कमजोर व हल्के हैं। बहु भी व्यवहार में अच्छी नहीं है, वेतन भी बहुत काम लाती है। पडोसी की बहु का वेतन भी अधिक है, दहेज भी अच्छा लाई थी। हमारे पुत्र में क्या कमी थी। ऐसी ऐसी बातें कर करके पति और पुत्र दोनों अपने साथ मिला लेती हैं, और एक दिन बन्द कमरे में सब मिलकर उस निहत्थी एवं निर्दोष कन्या को जलाकर राख कर देते हैं। पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है, माँ देखती रह जाती है। पछतावे के सिवाय हाथ में कुछ नहीं लगता।

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    Ved Katha Pravachan - 26 | Explanation of Vedas | धार्मिक शंका समाधान - प्रश्नों के उत्तर

    सरकार की कमजोरी प्रशासनिक व्यवस्था एवं कम सजा के कारण जलाने वाले को फाँसी नहीं लगती, जो कि लगनी चाहिए, परन्तु उम्र भर चक्की पीसनी पड़ती है। लोभी माँ से अब कोई पूछे कि तूने अपनी घर की अनमोंल निधि अपनी निर्दोष एवं पूजा के योग्य पुत्रवधु, जिनके कारण तेरा घर बच्चों की किलकारियों से गुंजायमान होना था, उसे जलाकर तूने क्या हासिल किया, तू तो अपना पुत्र भी गंवा बैठी।

    आश्चर्य का विषय है कि जिस देश में नारी का इतना सम्मान रहा हो कि देश का नाम भी उसी के नाम से रखा गया हो- 'भारत माता', भारत पिता नहीं, वहाँ नारी की आज यह दशा। किसी बड़े से बड़े राष्ट्र ने भी कभी देश का नाम नारी के नाम से नहीं रखा होगा। भारतवर्ष के अतिरिक्त कोई भी अन्य देश चाईना माता, इंग्लैंड माता, अमेरिका माता, जैसे नामों से नहीं जाने जाते है। नारी जाति को इतना बड़ा सम्मान केवल और केवल 'भारत माता' कहकर इसी राष्ट्र ने दिए।

    वेद जो कि हमारी गाइड बुक हैं, हमारी धर्म पुस्तक हैं, उसमें भी नारी के अति विशेष सम्मान देते हुए वर्णिंत किया गया है कि : 'यत्र नारी पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः' अर्थात् जहाँ नहीं का सम्मान किया जाता है वहां पर देवता निवास करते हैं। फिर भी इसी देश में क्यों नारी पर समय-समय पर अत्याचार होते आए हैं। सति प्रथा भी इसी देश में हुई। राजा राम मोहन राय ने जब जिन्दा नारी को जलाते और चिल्लाते हुए देखा तो उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा। उन्होंने विचार किया कि यदि पति के बाद पत्नी को जला दिया है तो पत्नी के बाद पति को क्यों नहीं। इस प्रथा को मिटाने के लिए कानून बनाकर नारी जाति पर बहुत बड़ा उपकार किया। पूरी नारी जाति का मस्तक उनके सामने नतमस्तक हो उठा। श्रीराम जो कि ह्रदय से जानते थे कि सीता सर्वथा निर्दोष और शत प्रतिशत पतिवृता है, फिर भी अग्नि परीक्षा ले ली। एक मूर्ख व्यक्ति के कहने पर ही घर से निष्कासित कर दिया। निर्दोष द्रौपदी का चीर हरण भी तो इसी देश में हुआ।

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    बुद्धि परिणामतः इतनी बढ़ी कि नारी प्रधानमंत्री तक के पद पर आसीन हुई। नारी ने चैन की सांस ली और महर्षि दयानन्द उपकारों आगे नतमस्तक हो गई हो गई। परन्तु समय ने ऐसी करवट बदली की धन के लोभ ने पढ़ी-लिखी माँ को भी अन्धा कर दिया। सरकार ने बहतु कानून बनाए, परन्तु इस भयंकर अजगर रूपी दहेज प्रथा को नहीं रोक सकी। सरकार भी इसमें कहाँ तक करे, क्योंकि ये जो घर की बात ठहरी, जो कि लोगों के ह्रदय परिवर्तन किए बिना हल नहीं हो सकती। इसलिए आवश्यकता है ह्रदय परिवर्तन की। धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक प्रवृति के लोगों को मानवीय उपदेशों द्वारा लोगों का ह्रदय परिवर्तन करना होगा।

    मैं समझती हूँ की इस ओर आर्य समाज की भी एक भारी जिम्मेदारी है। आर्य समाज सदा ही अपने मिशन में कोई न कोई जटिल समस्या रखकर उससे जुड़ता रहा है। आर्य समाज का इतिहास गवाह है कि प्रारम्भिक दौर में आर्य के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने समाज में व्याप्त हर बुराई और कुरीतियों का डटकर मुकाबला किया है और उसे दूर भी किया। किन्तु आज मानो आर्य समाज थक सा गया है। आज सैकड़ों समस्यों और बुराइयों को देखते हुए भी आर्य समाजियों ने आँखे बन्द कर रखी हैं, और यदि आर्य समाज ही सो गया तो सारे समाज का क्या होगा? सभी बुद्धि जीवी मानते हैं कि आर्य समाज सत्य, संघर्ष, शालीनता, सुन्दरता, स्वाभिमान का आदर्श है जो हर जगह संजीवनी का कार्य करता रहा है तो ऐसे अवसर पर आर्य समाज क्यों पीछे रहें?

    बन्धुओं ! आइए नारी के लिए सदा संघर्षशील यह समाज आज और एक संकल्प लेना चाहता है। दहेज रूपी राक्षस जो कि नारी के उत्पीड़न का साधन है, को मिटाकर समाज में एक आदर्श स्थापित करें। जब-जब नारी पर अत्याचार या विपत्तियाँ आई आर्य समाज ने सदा नारी की रक्षा एवं संरक्षण की है। आज भी दहेज की आड़ में नारी शोषित हो रही है और नारी पर अनेक अत्याचार कियें जा रहें है।

    आर्यसमाज को आज की तारीख में एक यही मोर्चा लेकर अपना आन्दोलन चलाना चाहिए। हर आर्यसमाजी संकल्प ले कि न तो वह दहेज लेगा और न दहेज देगा। लेने की भावना रखना और न देने के लिए आन्दोलन चलाना भी एक भयंकर स्वार्थ है, यहीं अधर्म है इसलिए न्याय समान होना चाहिए। हमें न ही दहेज चाहिए और न ही किसी को दहेज देंगे। साथ ही आजकल विवाह में दिखावें के लिए लाखों रुपयें टेन्ट, फार्म हाऊस आदि के नाम पर खर्च किये जा रहें है। आखिर रुपयों का इतना अधिक आप व्यय क्यों हो रहा है?

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    आर्य समाज आह्वान करें अपने सदस्यों से कि विवाह में अधिक व्यव न करें। पहले पाकिस्तान में हमारे ग्रामिण क्षेत्रों की पंचायत ऐसे अपव्यव अपर अंकुश लगाती थी। अधिक व्यय करने वालो को ढण्ड दिया जाता था। आज आवश्यकता है कि आर्यसमाज भी एक पंचायत के रूप में भूमिका निभायें। दहेज और अधिक अपव्यव का संविधान पारित कर अपने सदस्यों में लागू करें और कठोरता से चाहे नैतिकता के आधार पर हो या दण्डीय आधार पर हो उसका पालन किया जायें। आर्य समाज का हर मंदिर इस पंचायत का कार्यालय होगा। इसेक हर सदस्य इस नियम का पालन करेंगे और यदि हम पालन करने में सक्षम हुए तो हजारों-लाखों लोग उस राक्षस से बचने के लिए हमारी शरण में आयेंगे। अपने नियम व शर्तों के आधार पर वे भी इस आन्दोलन के भागी बनेंगे। मैं आर्य समाज की प्रत्येक इकाई से प्रार्थना करती हूँ कि इस सुझाव पर विचार कर अपने समाज में इस व्यवस्था को लागू करें। अगर ऐसा हो जाता है तो धनाढ्य वर्ग की नकल करके दिखावे की जिन्दगी जीने वाला मध्यवर्गीय दहेज और अधिक खर्चे के बोझ से बच जाएगा और तब न कोई बेटी के जन्म पर मातम मनाएगा और न ही नारी को नरक का द्वार कहेगा। 
    आर्यों ! आईये विचार कीजिये और इस समस्या का समाधान हम अपनी आर्य समाज से ही शुरू करते हैं। मुझे विश्वास है आप सभी अपनी समाज में आदर्श स्थापित करने के लिए पहले स्वंय कदम बढ़ायेंगे। - श्रीमती प्रेमलता शास्त्री

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    95% of the stigma of burning a daughter-in-law is felt on the foreheads of the mothers, because men do not have much knowledge about what came less in dowry and what came more expensive. Mothers only pick one thing, sari, jewelry etc. and show the husband that these clothes are not suitable for wearing, the jewelry is very weak and light. Bahu is also not good in practice, salary also brings a lot of work. Neighbor's daughter-in-law's salary is also high, dowry was also good. What was lacking in our son.

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  • दांपत्य जीवन का आधार

    दांपत्य जीवन का आधार
    दांपत्य जीवन का आधार दो आत्माओं का परस्पर आकर्षण और साहचर्य है; यह बात जानते, कहते तो सब हैं, पर अंतःकरण तक यह तथ्य बैठता कम ही लोगों में है। सुख और शांति की कामना तो प्रत्येक को होती है, परन्तु इस कामना को साकार रूप कैसे दिया जाए ? इसका विचार तथा स्मरण करने और तदनुसार आचरण करने के साथ पर जब ध्यान इस ओर अटकने लगता है कि जीवनसाथी से हमने अभीप्सित सुख-शांति प्राप्त नहीं हो रही है; इसका संपूर्ण दोष इसी पर है, मुझ पर ऐसा क्रम शुरू हो जाता है, जो समाप्त होता ही नहीं दीखता।
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  • दुर्बलता को त्यागें

    दुर्बलता को त्यागें
    असफलता से परेशान होकर अपने प्रयासों को छोड़ें, नहीं और किंचित सफलता पाकर संतुष्ट होकर बैठें नहीं। उपनिषद् में भी ऐसा ही कहा है - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' अर्थात उठो, जागो और लक्ष्यप्राप्ति होने तक रुको मत। दुर्बलताओं को त्यागें और शक्तिमान बनें - स्वामी विवेकानंद के अनुसार - उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे-संदेश देता है। यह चिंतन विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है, समस्त जीवन में मैनें यही महाशिक्षा प्राप्त की है।

  • धन की शक्ति

    धन की शक्ति

    धन की शक्ति बड़ी सीमित है। उससे शरीर का निर्वाह करने वाले पदार्थ खरीदे जा सकते हैं; जिनकी वास्तविकता बहुत ही सीमित है। जमा किया हुआ अत्यधिक धन किसी के कुछ काम नहीं आता। सब जहाँ-का-तहाँ पड़ा रह जाता है। जिन उत्तराधिकारियों के लिए उसे जोड़ा जाता है, वे उस मुफ्त के माल से बेरहम ऐयाशी करते हैं और उसे बारूद की तरह फूँककर तमाशा देखते हैं। मुफ्त की मिली हुई पैतृक संपत्ति उत्तराधिकारियों को निकम्मा, आलसी, व्यसनी, फजूलखरची एवं दुर्गुणी बना देती है; इसलिए संतान के लाभ के लिए जोड़ा गया धन वस्तुतः उनकी हानि ही करता है। 

  • नारी का उत्थान मानव जाति का उत्थान है

    नारी का उत्थान मानव जाति का उत्थान है

    मनु ने नारी के सम्बन्ध में अत्यन्त ही सामयिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
    आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः। 
    अर्थात् जो स्त्रियां अपनी रक्षा अपने आप ही करती हैं, वही सुरक्षित रहती हैं। आज के परिवेश में नारी के इस स्वरूप को स्वीकार किया है। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है- 'जब कहा जाता है कि नर और नारी, पुरुष और पृकृति के भांति हैं, तो इसका अभिप्राय यह होता है कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी मूलतः पुरुष की शिक्षक है। वैदिक युग में धर्म की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति यज्ञ था। इसमें पति-पत्नी दोनों भाग लेते थे। दोनों मिलकर प्रार्थना करते थे और आहुतियां डालते थे। हारीत ने स्त्रियों को ब्रम्हवादिनी और सुद्योवधु के सम्बोधन से सम्बोधित किया है। नारी सामाजिक बोध और व्यवहार के समान रूप से दक्ष होती है। वर्तमान में नारी जागरण को के स्वरूप को देखकर योगेश चन्द्र घोष ने लिखा है- आल दैट इज बेस्ट इन विमेन आज रेज्ड टू ए स्टेट आफ हाई इमिनेन्स।' अर्थातः नारी परम श्रद्धा की अधिकारिणी है।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 24 | Explanation of Vedas | वेद में धन प्राप्ति के मन्त्र

    भारतीय संस्कृति में वैदिक युग से ही नर-नारी की प्रति सम्मान का भाव नारी सृष्टि के उपादान का प्रथम सोपान है। मानव सभ्यता के विकास के इतिहास में पुरुष एवं प्रकृति का महत्व समान रूप से स्वीकार किया गया है। विभिन्न सभ्यताओं के उतार-चढाव के कारण सामाजिक विकृतियां उत्पन्न हुई और इन विकृतियों ने समाज को पुरुष प्रधान के शासन की ईकाई के रूप में प्ररिणत कर दिया। उपनिषद और ब्राह्मण के युग में सामाजिक सत्व का विस्तार हुआ और नारी-सम्मान की सामाजिक मान्यता दृढ़ता की ओर अग्रसर हुई किन्तु स्मृति एवं पुराण के युग में नारी के अस्तित्व को चुन्नौती दी जाने लगी। वस्तुतः नारी प्रकृति की एक ऐसी सत्ता है जिसके सभी उपासक एवं मित्र हैं। किसी न किसी रूप में सभी नारी के सम्मान को स्वीकार करते हैं। इसलिए मनु ने लिखा है- 

    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
    अर्थात् जिस कुल में स्त्रियां पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहां स्त्रियों का अपमान होता है, वहां सभी यज्ञादि कर्म निष्फल होते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में नारी सम्मान की सामाजिक मान्यता धर्म और शास्त्रों में मर्यादित थी।
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    The women who protect themselves on their own are protected. In today's environment, we have accepted this form of woman. Dr. Radhakrishnan has written - 'When it is said that male and female are like men and background, it means that they are complementary to each other. Woman is basically a teacher of men. The biggest expression of religion in the Vedic era was Yajna.

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  • निष्पक्ष न्याय

    निष्पक्ष न्याय

    हम अपने लिए जैसा व्यवहार दूसरों के द्वारा होने की आशा करते हैं; वैसा व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। दूसरों के हितों को आघात पहुँचा कर अपना स्वार्थ-साधना करने की नीति से हमें प्रयत्नपूर्वक बचना चाहिए। यह सत्य है कि संसार में अधिकांश दुःख हमारे पापों के परिणामरूप होते कई बार कर्मफल तुरंत मिल जाता है। जिसके साथ बुरा किया गया, उसके द्वारा, प्रत्याक्रमण, सामाजिक अपकीर्ति, लोगों के असंतोष एवं असहयोग के कारण ओने वाली हानि एवं राजदंड द्वारा उस बुराई का दंड मिल जाता है। इनसे भी कोई व्यक्ति बच जाए तो ईश्वरीय निष्पक्ष न्याय द्वारा प्राप्त होने वाले दंड से कोई व्यक्ति बच नहीं सकता।

  • पर्व-त्योहारों की श्रृंखला

    पर्व-त्योहारों की श्रृंखला

    पर्व-त्योहारों की श्रृंखला में हम जन्मतिथियाँ भी मनाते हैं, जैसे-गणेश चतुर्थी, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, हनुमान जयंती, गंगा दशहरा, गीता जयंती, बुद्ध जयंती, महावीर जयंती, गुरुनानक जयंती, गांधी जयंती, बाल दिवस, शिक्षक दिवस आदि। साथ ही हम राष्ट्रीय पर्व भी मानते हैं, जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस आदि और विशेष त्योहार भी मानते हैं, जैसे गुरुपूर्णिमा, रक्षाबंधन, दशहरा, दीपावली, वसंत पंचमी, होली आदि। हम व्रत-पर्व भी मनाते हैं, जैसे- महाशिवरात्रि व्रत, वटसावित्री व्रत, निर्जला एकादशी व्रत, हरितालिका व्रत, करवाचौथ, श्री सूर्यषष्ठी व्रत, संकष्टी गणेशचतुर्थी व्रत आदि। 

  • पारस्परिक स्वार्थ

    पारस्परिक स्वार्थ

    बुराई पर चलने वालों की इज्जत बुरे लोगों के बीच भी नहीं होती। पारस्परिक स्वार्थ के लिए वे गुटबंदी करके कुछ समय तक ही एक जंजीर में बँधे भले ही रहें, पर ऐसी दशा में भी नशेबाज पर सर्वत्र तिरस्कार ही बरसता है। मुँह के सामने कोई भले ही कटु भर्त्सना न करे, पर मन में तो अवमानना का भाव रखे ही रहेगा। अवसर मिलने पर निंदा भी करेगा। पैसा खरच करके शरीर को गलती हुए यह निंदा, तिरस्कार मोल लिया जाए, संपर्क-क्षेत्र में अपना मन गिराया जाए, तो इसमें क्या समझदारी रही? 

  • प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - १

    प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - १

    आदिकाल से ही आध्यात्मिक की पुण्य पावन सलिला सतत् प्रवह्मान होकर भारत भूमि को पुनीत करती रही हैं। भारत का प्रत्येक प्रान्त इसके पवित्र स्पर्श से स्नात हुआ हैं। भारत का प्रान्त पंजाब जहां गुरुओं, पीरों फकीरों व वीरों की भूमि होने के निमित्त पवित्र है वहीँ गुजरात मनीषियों व क्रान्तिद्रष्टा महापुरुषों की जन्मभूमि होने का सौभाग्य रखता है। गुजरात जन्मभूमि है- विश्व को अहिंसात्मक क्रान्ति का मार्ग दर्शाने वाले महापुरुष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की। गुजरात मतृभूमि है- ५५२ रियासतों में विभक्त खण्ड-खण्ड बंटे भारत का एकीकरण करने वाले कुशल राजनीतिज्ञ लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की और गुजरात को सौभाग्य प्राप्त है- समस्त राष्ट्र में व्याप्त अज्ञानांधकार को चीरकर ज्ञान की प्रचण्ड दीपशिखा का प्रकाश प्रसारित करने वाले तथा राष्ट्रवासियों के हृदयों पर जमी हुई पाखण्ड की परत पर कुठाराघात कर उसे खण्डित करने वाले दिव्य शक्तिपुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की जन्मभूमि होने का। सन् १८२४ को काठियावाड़ के टंकारा ग्राम में अवतरित महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसा दिव्य व्यक्तित्व विश्व में एक ही बार पदार्पण करता है। उन जैसा कोई सत्यव्रती न बन सका क्योंकि एक वही मूलशंकर थे जो मंदिर में उठी आशंकाओं के समाधान हेतु परम प्रकाश की तलाश में गृह त्याग कर दृढ़ता से प्रवृत हो सके तथा परम तत्व को पा सके। इसीलिए केवल वही एक ऐसा अलौकिक व्यक्तित्व था जो स्वामी पूर्णानन्द का शिष्यत्व और स्वामी विरजानन्द की आशीष ग्रहण कर मूलशंकर से महर्षि स्वामी दयानन्द बनने का गौरव पा सका।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 29  | सम्पूर्ण विश्व के सुख व कल्याण की कामना | यजुर्वेद मन्त्र ३०.३

    राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियां -
    साकार दिव्य, गौरव-विराट पौरुष का पुंजीभूत ज्वाल,
    मेरी जननी का हिमकिरीट 
    मेरे भारत का दिव्य भाल जहां कहीं एकता अखण्डित,
    जहां प्रेम का स्वर है।
    देश-प्रेम में वहां खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।
    भारत के विराट गौरव ज्वाल से आलोकित इस दिव्य भाल की भास्वरता का श्रेय जाता है - ऋषिवर दयानन्द जैसे महामनीषियों को, संतों-महात्माओं को, विद्वानों को, दिव्य पुरुषों को क्योंकि महनीय व्यक्तियों की महनीयता उनके कर्म के असाधारणत्व में निहित रहती है। कर्म की यही विशेषता उन्हें जान-साधारण से कहीं उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित कर देती है और वे अनुकरणीय व्यक्तित्व बन जाते हैं। ऐसे ही महापुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवनानुभव विश्व के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गए। धन्य है ऐसा व्यक्तित्व जो स्वयं गरल ग्रहण करके सत्य व स्नेह की अमृत वर्षा करता रहा। धन्य है वह व्यक्तित्व जो विरोध के पत्थरों का धैर्यपूर्वक सामना करता हुआ मानव मंगल के पुष्प लुटाता रहा।

    मानव-मंगल हेतु ही ऋषिवर ने तत्कालीन परिस्थितियों के दृष्टिगत तीन प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए - वैदिक धर्म का प्रचार, राष्ट्रीय भावना का प्रसार व समाज सुधार।

    तत्कालीन परिवेश में धर्म वास्तविक अर्थों में प्रायः विलुप्त हो चूका था। उसका अस्तित्व पाखण्डों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, विभ्रमों व अज्ञान के अंधकार के नहर में खो चूका था। महर्षि ने वैदिक धर्म के प्रचार द्वारा ज्ञान का ऐसा अकाशदीप प्रज्वलित किया जिसके प्रकाश ने तत्कालीन परिवेश को तो आलोकित किया ही वह तो आज भी ज्ञान के तिमिर का छेदन कर रहा है।
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    वेदों के प्रति उनका दृष्टिकोण पूर्णतः वैज्ञानिक था। संस्कृति के प्रति वे पूर्वाग्रही कदापि नहीं थे। यही कारण है कि उनके गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन का परिणाम है - 'सत्यार्थ प्रकाश।' सत्यार्थ प्रकाश के रूप उस दिव्य विभूति ने एक ऐसा शाश्वत प्रकाश-स्तम्भ मानव जाति को प्रदान कर उपकृत किया जिसमें प्रत्येक युग में मानव संततियों का मार्दर्शन करने की असीम क्षमता विद्यमान है। इस तथ्य की पुष्टि करता है हमारा इतिहास। भारतीय स्वतंत्रता के अग्रदूत अनेक क्रांतिकारियों के जीवन व विचारधारा पर 'सत्यार्थ प्रकाश' का गहन प्रभाव पड़ा चाहे वे गर्म दलीय नेता 'बाल लाल पाल' थे, देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले नौजवान सभा के भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव थे, या रणबांकुरे आज़ाद, यशपाल थे, चाहे कालापानी का भयावह दण्ड भोगने वाले वीर सावरकर थे, चाहे अंग्रेजों को रणभूमि में ललकारने वाले सेनानायक सुभाषचन्द्र बोस थे या लाला हरदयाल, सरदार अजीत सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, यतिन्दास जैसे मां भारती के वीर सपूत थे या फिर 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है' जैसी अंग्रेजी सत्ता को सीधी चुनौती देने वाली पंक्तियों के रचनाकार काकोरी कांड के सूत्रधार क्रान्तिकारी पं० रामप्रसाद बिस्मिल थे जिनकी जीवन दिशा ही 'सत्यार्थ प्रकाश' व आर्य समाज के सिद्धान्तों ने परिवर्तित कर दी थी। जिस प्रकार महर्षि की विचारधारा ने क्रान्तिकारियों को प्रभावित किया उससे उस महनीय व्यक्तित्व की राष्ट्रीयता स्वतः ही ध्वनित हो जाती है। वास्तव में स्वामी जी के पश्चात महात्मा गांधी , पंडित नेहरू जैसे देश के नेताओं ने भारत के सामाजिक विकास हेतु जो लक्ष्य निर्धारित किए, उनका सूत्रपात स्वामी दयानन्द द्वारा पहले ही हो चूका था।

    स्वामी जी ने राष्ट्रवासियों में देशाभिमान जागृत किया, उन्हें स्वराज्य की उत्कृष्टता का पाठ पढ़ाया। वे ही प्रथम महापुरुष थे जिन्होंने भारत को भारतीयों के लिए घोषित किया। स्वयं संस्कृत के प्रकांड पंडित और मातृभाषा गुजराती के विद्वान होते हुए भी उन्होंने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने मद्रास से प्रकाशित पत्र 'हिन्दी प्रचार समाचार' में वक्तव्य दिया- 

    ''हिन्दी के द्वारा सारा भारतवर्ष एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। हिन्दू तो इसके झण्डे के नीचे आ ही जाएंगे, मुसलमानों के लिए भी इसको अपनाना आसान होगा क्योंकि उर्दू भाषा का सारा ढांचा हिन्दी का ही रूप लिए है।'' -श्रीमती सुशील बाला

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    The Majesty of India is attributed to the Magnificence of this divine spear, illuminated by the great pride of India - the great sages like Rishivar Dayanand, the saints, the scholars, the divine men, because the dignity of the important people lies in the extravagance of their deeds. This characteristic of karma makes him distinguished on a higher level than life and he becomes an exemplary personality. In this way, the great experience of Maharishi Dayanand Saraswati became the inspiration for the world.

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  • प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - २

    प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - २

    आज हिन्दी राष्ट्रभाषा व राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है भारतीय संस्कृति की महानता के उद्घोषक महर्षि स्वामी दयानन्द जैसे अपने उद्वारकों अपर निस्संदेह गर्व करती है और उनका गौरव गान करती है। 

    वैचारिक क्रान्ति के अग्रदूत स्वामी जी कर्मवीर महामानव थे। पतन के गर्त में गिरते समाज के प्रति वे अपने कर्म से कैसे उदासीन रह सकते थे? इसलिए उस कर्मशील व्यक्तित्व ने धुन की तरह समाज की जड़ों को खोखला कर रही जाति-पाति, छूत-छात, बल विवहा, पर्दा-प्रथा जैसी कुरीतियों से भारतीय समाज को मुक्त कराने का कर्तव्य वहन किया और इन समस्त कुरीतियों पर कुठाराघात किया। उस महमनीषि ने अज्ञान पर तीव्र प्रहार करने हेतु आर्य समाज व विभिन्न गुरुकुलों की स्थापना द्वारा ज्ञान की शत्-शत् धाराओं को प्रवाहित किया। इसी सन्दर्भ में उन्होंने भारतीय संस्कृति की नींव नारी-जाति के उत्थान हेतु नारी-शिक्षा का अभियान चलाया। आज यदि भारतीय नारी प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के साथ समानता के स्तर पर खड़ी है, यहां तक कि कुछ क्षेत्रों में तो अग्रणी है तो इसका समस्त श्रेय ऋषिवर स्वामी दयानन्द जैसे शक्ति पुरुष को ही जाता है और उनके इस महत् कार्य के लिए भारतीय नारी वर्ग सदा उस क्रान्तिदृष्टा का ऋणी रहेगा।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 30 | सम्पूर्ण दुःखों की समाप्ति की कामना | यजुर्वेद मन्त्र 30.3

    इस प्रकार महर्षि जैसी दिव्य विभूति ने देशवासियों को नव्य चेतना, नयी जागृति प्रदान कर उन्हें कर्ममय व धर्ममय जीवन जीने की प्रेरणा दी। जागरण का जो शंखनाद उन्होंने की उससे सुप्त राष्ट्रवासी चैतन्य हो उठे थे उनका परमार्थमय जीवन उनकी पावन भक्ति तथा उनका दिव्य ज्ञान युगों-युगों तक हमारी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करता रहेगा। इसलिए समाज सुधारकों में अग्रदूत, सांस्कृतिक पुनरुत्थान करने वाले अज्ञानांधकार के विनाशक, वैदिक-साहित्य की नविन व्याख्या करने वाले सुधी व्याख्याता, आर्य समाज के संस्थापक, सनातन धर्म को उसकी अतिवादिताओं से अवगत कराने वाले सत्य शोधक मनीषी, सामाजिक कुरीतियों, प्राचीन रूढ़ियों पर प्रहार करने वाले व अस्पृश्यता का निराकरण करने वाले विशाल हृदयी सुधारक, नारी जाति के समादर का भाव विकसित करने वाले नारी शिक्षा के प्रणेता, राष्ट्रीय भावना का प्रसार करने वाले राष्ट्र-प्रेमी एवं 'शुद्धि' को जन्म देने वाले ज्ञानपुंज महर्षि दयानन्द सरस्वती का भारत का कोना-कोना गौरव गान करता है। परन्तु महर्षि के प्रति सच्चा श्रद्धापूर्वक नमन उनके बताए मार्ग पर चलना होगा। उनके उपदेशों को व्यवहार में लाना होगा। क्योंकि आधुनिक परिस्थितियां अत्यंत विकट है। जिस विदेशी सत्ता की राजनितिक अधीनता के विरुद्ध महर्षि ने उद्घोष किया था। ''विदेशी शासन अच्छे से अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी शासन की तुलना में अच्छा नहीं।''

    आज वैसी ही विदेशी शक्तियां भारत आर्थिकता को नियंत्रित करने का दुःसाहस दिखा रही हैं, उसी प्रकार के विदेशी आक्रान्ता हमारी सांस्कृतिक सम्पदा को तहस-नहस कर डालना चाहते हैं, हमारे युवा वर्ग की मानसिकता को अपने अधीन कर रह हैं। अर्थात् इस बार आक्रमण एक नहीं, कई षड्यन्त्र के रूप में अप्रत्यक्षतः किया जा रहा है। मीडिया को शस्त्र बनाकर आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति की अश्लीलता का वीभत्स नृत्य प्रदर्शित किया जा रहा है और हमारी युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर चारित्रिक ह्रास द्वारा भारतीय संस्कृति के वर्तमान व भविष्य को कलुषित करने की कुचेष्टा की जा रही है। किन्तु आश्चर्य व दुःख की बात है कि हम फिर भी मौन हैं। राष्ट्र में साम्प्रदायिकता की अग्नि सुलगती है, जाति-भेद की दीवारें सीना ताने खड़ी हैं, नेताओं के लिए देश सेवा 'स्वयंसेवा' बन चुकी है, युवा पीढ़ी अपनी ही संस्कृति से विमुख हो उसका उपहास उड़ा रही है, पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, स्वार्थ मानवता की लील रहे हैं, अंधविश्वास का अस्तित्व आज भी विवेक बुद्धि पर बज्र प्रहार कर रहा है परन्तु फिर भी हम मौन हैं, मूक दर्शक बने बैठे हैं।
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    आज आवश्यकता है पुनः जागृत होने की और इस जागरण का स्त्रोत है ऋषिवर द्वारा निर्दिष्ट मार्ग। इसके लिए आत्म-मंथन करना होगा। क्या हम उस महान व्यक्तित्व द्वारा निर्दिष्ट पथ के पथिक बनने का सामर्थ्य रखते हैं? क्या हम उनके द्वारा बताए उपदेशों का पालन कर रहे हैं? क्या हम पूर्ण निष्ठा से उनके चरण चिन्हों का अनुसार करने को कृत संकल्प हैं? क्या हम वास्तव में आर्य समाज के सिद्धान्तों पर अडिग हैं ?
    यदि हमारा अन्तर्मन, हमारी अन्तरात्मा द्वारा इन प्रश्नों का हमें सकारात्मक उतर प्राप्त होता है तो निश्चय ही राष्ट्र कल्याण व मानव मंगल हेतु किए गए हमारे सभी प्रयास सार्थक होंगे और एक दिन समस्त मनोमालिन्य, हृदयगत कलुषता, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, स्वार्थ का नाश होगा और हम सही मायनों में उस दिव्य व्यक्तित्व स्वामी दयानन्द के अनुयायी कहलाने योग्य होंगे।

    कविवर उदयभानु हंस की पंक्तियों में अपनी बात समाप्त करना चाहूंगी -
    तुम विष को सुधा सोम, बनाओं तो सही।
    सीमा को कभी व्योम, बनाओं तो सही। 
    कण-कण में वही रूप दिखाई देगा।
    पहले अहं को ओम् बनाओं तो सही। 
    -
    श्रीमती सुशील बाला


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    This Time the Attack is being done indirectly in the form of not one, but many conspiracies. The media is displaying a gruesome dance of vulgarity of Western culture in the name of modernism and misleading our young generation by misleading the present and future of Indian culture by character deprivation. But it is a matter of surprise and sadness that we are still silent.

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  • प्रार्थना से कामना सिद्धि

    प्रार्थना से कामना सिद्धि

    मनुष्य अनेक शुभ अभिलाषाओं से कुछ यज्ञों को प्रारम्भ करते हैं और चाहते हैं कि यज्ञ सफल हो जाएँ, परन्तु कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक उस यज्ञ में देवों के देव अग्निरूप परमात्मा पूरी तरह न व्याप रहे हों। चूँकि जगत में परमात्मा के अटल नियमों व दिव्य-शक्तियों के अर्थात् देवों के द्वारा ही सब-कुछ सम्पन्न होता है। परमात्मा के बिना कोई यज्ञ कैसे सफल हो सकता है? और जिस यज्ञ में परमात्मा व्याप्त हो वह यज्ञ अध्वर (ध्वर अर्थात कुटिलता और हिंसा से रहित) तो अवश्य होना चाहिए। पर जब हम यज्ञ प्रारम्भ करते हैं, कोई शुभ कर्म करते हैं, किसी संघ-संघटन में लगते हैं, परोपकार का कार्य करने लगते हैं, तो मोहवश परमात्मा को भूल जाते हैं। उसकी जल्दी सफलता के लिये हिंसा और कुटिलता से भी काम लेने को उतारु हो जाते हैं। तभी परमात्मा हाथ हमारे ऊपर से उठ जाता है। ऐसा यज्ञ देवों को स्वीकृत नहीं होता, उन्हें नहीं पहुँचता, सफल नहीं होता। इसलिए याज्ञिक प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! अब जब कभी हम निर्बलता के वश अपने यज्ञों में कुटिलता व हिंसा का प्रवेश करने लगें और तुझे भूल जाएँ तो हे प्रकाशक देव! हमारे अन्तरात्मा में एक बार इस वैदिक सत्य को जगा देना, हमारा अन्तरात्मा बोल उठे कि हे अग्ने! जिस कुटिलता व हिंसारहित यज्ञ को तुम सब ओर से घेर लेते हो, व्याप लेते हो, केवल वही यज्ञ देवों में पहुँचता है अर्थात् दिव्य फल लाता है, सफल होता है। सचमुच तुम्हें भुलाकर, तुम्हें हटाकर यदि हम किसी संगठन शक्ति द्वारा कुटिलता व हिंसा के जोर पर कुछ करना चाहेंगे तो चाहे कितना भी घोर उद्योग कर लें हमें कभी सफलता नहीं मिलेगी।•

    Everything in the world is accomplished by God's steadfast rules and divine powers, that is, by the Gods. How can any Yagya be successful without God? And the Yagya in which God is present must be Adhvara Dhvara i.e. free from evil and violence.

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  • ब्रम्हचर्य का महत्व

    ब्रम्हचर्य का महत्व
    आश्चर्य नहीं कि भारतीय साधनापद्धति में ब्रम्हचर्य का विशेष महत्व माना गया है। शास्त्रों में स्पष्ट है कि कामरूपी शक्ति का का दमन संभव नहीं, न ही यह स्वस्थ प्रक्रिया है। इसका दमन तमाम तरह के मनोविकारों एवं विकृतियों को जन्म देता है, साथ ही इसका असंयमित एवं अमर्यादित उपभोग भी घातक है। इसके संदर्भ में मध्यम मार्ग का अनुसरण ही सर्वसाधारण के लिए उचित है। जीवन के उच्च आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि एवं जीवनशैली के साथ इसका सृजनात्मक नियोजन किया जा सकता है।

  • महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १

    महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १ 

    भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब महर्षि दयानन्द ने अपने व्याख्यानों, शास्त्रार्थों और ग्रन्थों के द्वारा विदेशी धर्मों का खण्डन किया। भारतीय सम्प्रदाय और धर्म तो एक दूसरे का खण्डन करते ही रहते थे। शाक्त, शैव, वैष्णव सम्प्रदाय परस्पर एक दूसरे का खण्डन करते रहे हैं। आद्य शंकराचार्य ने जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त कर वैदिक धर्म की स्थापना की। उनके प्रचार और शस्त्रार्थों से बौद्ध धर्म तो भारत में समाप्तप्राय हो गया। किन्तु मतखण्डन पूर्वक स्वमत स्थापना की परम्परा तो भारत में आदि काल से चली आ रही है।

    महर्षि दयानन्द ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों का एक समान विधिवत् खण्डन किया है। इससे भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों के दुराग्रही अन्धविश्वासी लोगों में कुछ तनाव की भावना आई। इससे कुछ लोगों में यह धारणा बन गई है कि महर्षि दयानन्द ने खण्डन मार्ग पर चलकर दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति सदभाव को छोड़ वैमनस्य का मार्ग अपनाया। है। इससे भारत के विविध धर्मो के अनुयायियों के बीच तनाव बढ़ा है। अब हम कुछेक पक्तियों में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे कि क्या महर्षि दयानन्द ने खण्डन का मार्ग अपना कर तनाव उत्पन्न किया है अथवा धर्म के इतिहास में एक नै जागृति उत्पन्न की है और प्रत्येक धर्म को वैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का यत्न किया है, सभी धर्मो को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है?

    महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की रचना बड़े शुद्ध भाव और सत्यान्वेषण की दृष्टि से की है। वे सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मत में हैं वे पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धांत अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल सबके मत में है उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें है उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें बर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इन हानि ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है- सब मनुष्यों को दुख सागर में डूबा दिया।'' महर्षि पुनः लिखते हैं- 'यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसे ही दूसरे देशस्थ या मतोन्नति वालों के साथ भी बर्तता हूँ। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में बर्तता हूँ वैसा विदेशियों के साथ भी तथा विषय में बर्तता को बर्तना योग्य है।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 21 | Introduction to the Vedas | विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन

    महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की उत्तरार्ध अनुभूमिका में एक सार्वभौम मत का प्रवर्तन करने के लिए लिखते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्ध वाद नहीं छूटेगा तब तक अन्योअन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिए यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ने ही सबको विरोध जल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहे तो अभी ऐक्य मत हो जाय।

    शास्त्रार्थ परम्परा और सत्यान्वेषण का समर्थन करते हुए मर्हिष दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की अनुभूमिका-२ में बारहवाँ समुल्लास आरम्भ करने से पहले लिखते हैं जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद या लेख न किया जाय तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता तभी विद्वानों को महा अंधकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुख्य काम है।
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    सत्यार्थप्रकाश के विद्वानों से हमने यह सिद्ध करे का प्रयास किया है कि सत्यासत्य के निर्णय के लिए प्रीति से शास्त्रार्थ परम्परा को चलाना परम आवश्यक है और इसी दृष्टी से महर्षि ने अपने समय में प्रचलित सभी मतमतान्तरों की समीक्षा की है। अब हम महर्षि की जीवनी की ओर आते हैं और यह देखने का यत्न करते हैं कि उनका विविध धर्मो के अनुयायिओं के प्रति कैसा व्यवहार था। महर्षि सन्यासी होने के नाते ''सर्वभूतहिते रतः'' (सब प्राणियों का कल्याण करने वाले थे ) वे 'शठे शाठ्यं समाचरेत्'- दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार-सिद्धान्त को मानाने वाले नहीं थे। वे तो दुष्टों के प्रति भी सज्जनता का व्यवहार करते थे। वे कहा करते थे - यदि दुष्ट अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ते तो सज्जन अपनी सज्जनता को क्यों छोड़े? किसी कवी ने सज्जन का बड़ा सुन्दर लक्षण किया है:- 

    ते साधवः सुजन्मानस्तैरीयं भूषिता धरा। अपकारिषु भूतेषु ये भवन्त्युपकारिणः||
    उन सज्जनों का जन्म लेना सार्थक है और ऐसे सज्जनों से धरती शोभायमान होती है - जो दुष्टों का भी उपकार करते हैं। सच पूछिए तो महर्षि ऐसे ही सज्जन थे।
    महर्षि दयानन्द ''वसुधैय कुटुम्भकम'' को मानाने वाले थे। वे समस्त संसार को अपना परिवार समझते थे। उनके लिए अपने-पराये नाम की कोई बात नहीं थी। उन्होंने सभी धर्मो के आचार्यों को एक मंच पर लाने का यत्न किया। उनकी जीवनी का एक प्रसंग यह है:- दिसम्बर १८७६ में दिल्ली में राजदरबार हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के महोत्सव के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा के महोत्सव हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा होने वाली थी। उसके लिए सभी राजे-महाराजे और प्रतिष्ठित नागरिक राज-निमंत्रण से वहाँ एकत्र हो रहे थे। कहा जाता है कि महाराजा इंदौर ने ऐसे अवसर पर धर्म-प्रचार करे के लिए महरिष को निमन्त्रित किया था। वे राजमण्डल में भी उनका भाषण कराना चाहते थे।

    राजदरबार के अवसर पर महर्षि के सत्संग का लाभ उच्चकोटि के लोगों ने उठाया। महर्षि तो चाहते थे कि राजाओं, महाराजाओं की सभा करके सब आर्यो में एक धर्म और एकता का तांगा पिरो दिया जाय परन्तु अनेक कारणों से इनमे सफलता न होते देख एक दिन महर्षि ने अपने स्थान पर भारत के भिन्न-भिन्न मतों और जातीय नेताओं की एक सभा बुलाई। उनके निमन्त्रण पर पंजाब के प्रसिद्ध सुधारक कन्हैयालाल जी अलखधारी, श्रीयुत नवीनचन्द्रराय, श्री हरिश्चंद्र चिंतामणि, सर सैय्यद अहमद खां, श्री केशवचन्द्र सेन और श्री इंद्रमन जी- ये छह सज्जन वहाँ पधारे। वहाँ महर्षि ने यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि हम भारतवासी सब परस्पर एक मत होकर एक ही रीती से देश का सुधार करें तो आशा है भारत देश सुधर जावेगा, किन्तु कई मौलिक मतभेद होने के कारण वे सब एकता के सूत्र में सम्बद्ध न हो सके। - विश्वनाथ शास्त्री

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    This was the first time in Indian history when Maharishi Dayanand repudiated foreign religions through his lectures, lectures and texts. Indian sects and religions used to contradict each other. The Shakta, Shaiva and Vaishnava sects have been contradicting each other. Adya Shankaracharya debated with the Jains and the Buddhists and disbanded their religions and defeated them and disbanded their religions and defeated them and established the Vedic religion. 

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  • महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - २

    महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - २

    महर्षि दयानन्द को अपने सिद्धांत प्यारे थे परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वे अन्यों के सिद्धांत की अवहेलना करते थे। वे बड़े सहनशील थे। वे पौराणिक या हिन्दू धर्म के मूर्ति-पूजा आदि सिद्धांतों की शास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा करते हुए भी हृदय को विशालता के कारण हिन्दू धर्म को उदार ही मानते थे। अपने जीवन के एक प्रसंग में वे १८७७ के लगभग अमृतसर पहुंचे। वहां के कमिश्नर की प्रार्थना पर महर्षि उनके बंगले पर पधारे। वार्तालाप करते हुए कहा कि- ''हिन्दू धर्म को'' सूत के समान कच्चा'' क्यों कहते हैं? महर्षि ने उतर दिया- ''यह कच्चा नहीं किन्तु लोहे से भी कड़ा है। हिन्दू धर्म समुद्र के समन है। इसमें अनेक अच्छे और बुरे मतों के तरंग विद्यमान है, सदाचारी हैं, परोपकार परायण रहते हैं और एक निराकार परमेश्वर को अपने मनो मन्दिर में पूजते हैं। इनके विपरीत लोग भी हिन्दू धर्म में पाए जाते है जो महाक्रूर, अनाचारी, वामी हैं; कोरे नास्तिक, अवतारों को मनाने वाले हैं। यहाँ योगी, ध्यानी, तपस्वी, और आजीवन ब्रम्हचारी रहने वाले भी विद्यमान हैं और ऐसे भी अनेक हैं - जिनका उद्देश्य आमोद-प्रमोद और संसार का सुख है। हिन्दू धर्म में छुआ-छूत मानने वाले सैकड़ों हैं वहाँ सबक साथ भोजन करे वाले हजारों हैं। परमार्थी-दर्शी और तत्वज्ञानी लोग इस धर्म में उच्च पद के पाए जाते हैं और ऐसे भी मिल जाते हैं जो ज्ञान के पीछे डण्डा लिए डोलते हैं। उत्तम माध्यम और निकृष्ट विचारों-अचारों के सभी मत और उनके मानने वाले मनुष्य इस मार्ग में मिलते हैं। वे सभी हिन्दू हैं और उन्हें कोई हिन्दूपन से निकाल नहीं सकता इसीलिए हिन्दू धर्म निर्बल नहीं किन्तु परम सबल हैं।''

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan -22 | Explanation of Vedas & Dharma | परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य

    प्रायः सभी धर्म अपने मत को सर्वश्रेष्ठ और अन्यों को दिन समझते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण वे अपने धर्म के विरुद्ध किसी बात को सुनना नहीं चाहते। इसी प्रवृत्ति के कारण भारत में प्रचलति सभी धर्म महर्षि के खण्डन से उनके विरोधी बन गए परन्तु महर्षि ने तो खण्डन का मार्ग सत्यासत्य के निर्णय के लिए अपनाया था। वे किसी के दिल को दुखाना नहीं चाहते थे। वे सैंद्धांतिक दृष्टि से सभी धर्मो का खण्डन करते थे, किन्तु सभी धर्मों के अनुयायिओं से प्रेम करते थे, विरोधियों का भी हित किया करते थे। अपने हत्यारों को भी क्षमा कर देते थे और उनके कल्याण के लिए यत्न शील रहते थे। महर्षि के जीवन से सम्बन्धित एक और घटना लगभग १८६७ में वे अनूपशहर में प्रचारार्थ पहुंचे। वहां एक ब्राह्मण ने रुष्ट होकर उन्हें पान में विष दे दिया। महर्षि ने न्यौली कर्म करे विष को अपने शरीर से निकाल दिया। सैय्यद मुहम्मद तहसीलदार, जो महर्षि के भक्त थे, ने जब यह समाचार सुना तो ब्राह्मण को कैद कर लिया। तहसीलदार का विचार था कि मेरे इस कर्म से महर्षि प्रसन्न होंगे,किन्तु जब उसने महर्षि ने यह बात बताई तो महर्षि अप्रसन्न हो गये और उन्होंने कह कि - ''मैं दुनिया को कैद कराने नहीं बल्कि उसे कैद से छुड़ाने आया हूँ। वह यदि अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता तो हम अपनी श्रेष्ठता क्यों छोड़ें?

    महर्षि का ईसाइयों के प्रति कैसा सदभाव था? ईसाइयों के गिरजाघरों के प्रति उनकी कैसी भावना थी? यह जानने के लिए एक घटना का उल्लेख करते है जो महर्षि के जीवन से सम्बंधित हैं - १८७६ के लगभग महर्षि बरेली पहुंचे। वहां उनके व्याख्यान होते थे। महर्षि का पादरी स्कॉट के साथ स्नेह सम्बन्ध था। वे नहीं आये तो महर्षि ने व्याख्यान के बाद पूछा कि भक्त स्कॉट क्यों नहीं आये? पता चला कि वे रविवार को गिरजाघर जाते हैं। महर्षि ने कहा कि चलो आज भक्त स्कॉट का गिरजाघर देख आएँ। महर्षि तीन चार सौ मनुष्यों के साथ गिरिजा में पहुंचे। महर्षि को आते देख पादरी स्कॉट वेदी पर से नीचे उतरकर आए और महर्षि को उपदेश देने के लिए प्रार्थना की। महर्षि ने उनके आग्रह पर वहाँ उपदेश दिया
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    महर्षि का मुसलमानों के प्रति भी बड़ा स्नेहपूर्ण व्यवहार था और अभिजात वर्ग के मुसलमान भी उनका आदर करते थे। १८७३ के आसपास की बात है- महर्षि अलीगढ पहुंचे। वहां मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ के संस्थापक और प्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर सैय्यद अहमद खां महर्षि की सेवा में प्रायः नित्य आया करते थे। एक दिन सैय्यद साहिब कई प्रतिष्ठित मुसलमानों और अंग्रेजों सहित महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए और अग्निहोत्र की उपयोगिता पर वार्तालाप होता रहा। १८७६ में दिल्ली में राजदरबार के अवसर पर महर्षि ने सर्वधर्म एकता का आयोजन किया। इस गोष्ठी में परस्पर सौहार्दपूर्ण वार्तालाप हुआ।

    लगभग १८७७ में महर्षि लाहौर पधारे। उनको लाहौर बुलाने में अधिक हाथ ब्रम्ह समाजियों का था। उन्होंने महर्षि के दो व्याख्यान अपने मन्दिर में कराए। प्रथम व्याख्यान 'वेद ईश्वरीय' विषय पर था और दूसरा 'पुनर्जन्म ज्ञान' पर। ये दोनों व्याख्यान ब्रम्ह समाज के मंतव्यों के विरुद्ध थे। इसलिए ब्रम्ह समाजी उनका विरोध करे लगे। महर्षि पुराणों का भी खण्डन करते थे, इसलिए जिस उद्यान में महर्षि निवास करते थे उसके मालिक ने भी उनका विरोध किया। फलतः महर्षि के भक्त जन उन्हें डॉक्टर रहीम खां की कोठी ले आए। यह कोठी भक्त छज्जू के चौबारे के पास थी। इस कोठी में महर्षि व्याख्यान देते और दूसरे दिन शंका समाधान करते थे। इसी कोठी में निवास करते हुए महर्षि ने आर्य समाज के संशोधित दस नियम बनाये तथा आर्य समाज लाहौर की स्थापना की स्थापना हुई जिसका पहला सत्संग भी यहीं हुआ। धन्य हैं महर्षि! और धन्य डॉ. रहीम खां जिन्होंने सर्वधर्म सदभाव का एक अनूठा उदाहरण हमारे सामने रखा।

    महर्षि जब जोधपुर में प्रचारार्थ पधारे थे तो वे राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बरकत उल्ला खां के दादा की कोठी में निवास करते थे। श्री बरकत उल्ला खां ने सर्वधर्म सदभाव के नाते उस कोठी को राष्ट्रीय स्मारक के रु में दान कर दिया। ऐसे ही विरले अभिजात्य सज्जनों के सौजन्य से सर्वधर्म एकता की आदर्श भावना परम्परा से चली आ रही है।

    महर्षि ने सर्वधर्म सदभाव का अभियान चलाया था और आर्य समाज इस अभियान को अब तक चलाता आ रहा है। इतना ही नहीं मुस्लिम वर्ग भी आर्य समाज के इस सौहार्दपूर्ण अभियान का आदर करते हैं। आर्य समाज स्थापना शताब्दी दिल्ली १९७५ तथा महर्षि दयानन्द निर्वाण शताब्दी अजमेर १९८३ के अवसर पर मुसलमानों ने शोभा यात्राओं के समय अपनी भावभीनी श्रद्धांज्जलि अर्पित की थी। प्रभु इस परम्परा को दोनों और से बने रखे। - विश्वनाथ शास्त्री

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    Maharishi Dayanand loved his principles, but this does not mean that he disregarded the principle of others. He was very tolerant. Even while reviewing the principles of mythology or idol worship of Hinduism from the classical point of view, they considered the Hindu religion as liberal due to the vastness of the heart. In one incident of his life, he reached Amritsar around 14. At the request of the commissioner there, Maharishi came to his bungalow.

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  • महर्षि दयानन्द की देश वन्दना

    महर्षि दयानन्द की देश वन्दना -

    आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में एक कर्त्तव्य बोध कराया है। यह बोध देश के प्रत्येक नागरिक के लिए धारण करने योग्य है। भला जब आर्यावर्त में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न जल खाया-पीया, अब भी खाते पीते हैं, तब अपने माता-पिता तथा पितामहादि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना, अंग्रेजी भाषा पढकर अभिमानी होकर झटिति एक अलग पन्थ चलाने में प्रवृत्त हुए मनुष्यों का स्थिर और वृद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता है?

    देश के प्रति समर्पित ऋषि की यह देश वन्दना बहुत सरल हृदय से लिखी गई है। उनकी इस वन्दना में कहीं कोई छल-कपट पक्षपात और तुष्टीकरण की गंध नहीं है।

    Maharishi Dayanand, the founder of Arya Samaj, has given us a sense of duty in Satyarth Prakash. This sense is worth imbibing for every citizen of the country. Well, when we were born in Aryavart and ate the food and water of this country, and even now we eat and drink it, then how can the work of people who leave the path of their parents and forefathers and lean more towards other foreign religions, become arrogant after studying English language and start following a different path, be stable and progressive?

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  • महर्षि दयानन्द के मन्तव्य - बच्चों का विश्वास कैसे हो

    महर्षि दयानन्द के मन्तव्य - बच्चों का विश्वास कैसे हो

    लार्ड मैकॉले के सिद्धान्तों के आधा पर जो शिक्षा स्कूलों में दी जा रही है वह शिक्षा नहीं है। यह शिक्षा बच्चों के विकास में सुधार न कर उनको कुपथ पर ले जा रही है। वे केवल भौतिक शिक्षा की ओर बढ़ रहे हैं। अपने माता-पिता, बूढ़ों का न वे आदर कर पाते हैं न ही उनकी सेवा सुश्रुषा में रूचि रखते है। उनके पास बैठना, बात करना तक भी उन्हें गवारा नहीं लगता। छोटी आयु में ही प्रेम, सेक्स, यौन शिक्षा की ओर आकृष्ट हो रहा है। इसेक अतिरिक्त कुछ नहीं जबकि बच्चे के जीवन निर्माण के लिए चारित्रिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।

    शिक्षा ग्रहण करने के लिए शिशु को तीन सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है। तीन गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है। माता, पिता, आचार्य। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है 'मातृमान, पितृमान, आचार्यवान पुरुषो वेद। स्वामी जी लिखते हैं वह बच्चा भाग्यवान है जिसके माता पिता सदाचारी, धार्मिक विचार वाले तथा सद्व्यवहारी है। बच्चे के निर्माण के लिए गर्भाधान संस्कार कराया जाता है तकि गर्भ से ही माता अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दे सके। शुद्ध और पवित्र विचार रखते हुए नशीली और वासना उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का सेवन न करे, अपितु स्वास्थ्य वर्द्धक, सुगति और सभ्यता देने वाली वस्तुओं का सेवन करें। क्योंकि माता के विचारों का प्रभाव बच्चे पर गर्भ से ही पड़ता है। वह अपने सदाचार और सद्व्यवहार का प्रभाव तब तक डालती रहे जब तक वह बच्चा पूर्ण रूपेण अपनी शिक्षा को प्राप्त न कर जाए।

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    भूत-प्रेत की कथाओं, पाप पाखण्ड से दूर रखें क्योंकि स्वामी दयानन्द जी इसके कट्टर विरोधी थे। यह बालक के विकास में घातक है। चरक की विधि तथा मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता का व्यवहार केसा होना चाहिए। माता स्वयं कैसा जीवन व्यतीत आकर और शिशु का पालन पोषण कैसे करे। इसका समाधान है कि माता प्रथम गुरु होने के नाते वह अपने बच्चे को संस्कारित, सभ्य तथा सुशिल बनाये ताकि वह अपने शरीर के किसी भी अंग का दुरूपयोग न करे। वाणी में नम्रता, उच्चारण शुद्ध और भाषा शुद्ध और स्पष्ट हो। बड़ों के साथ उचित व्यवहार, सम्मान, सेवा और आज्ञा का पालन करें। महर्षि अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने चाणक्य नीति की मान्यता को अक्षरशः सत्य बताते हुए कहा है- 
    माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।।
    वह माता बच्चों के पूर्ण रूप से शत्रु है जो अपने बच्चों को अच्छी विद्या नहीं दे पते वे बच्चे समाज द्वारा विद्वानों द्वारा ऐसे अपमानित होते है जैसे हंसों के बीच बगुला।

    दुरसा रूप गुरू पिता - पिता का कर्तव्य है बच्चो को शिक्षा देने का जो पांच वर्ष पश्चात प्रारम्भ होता है। वह बच्चों को नियंत्रण में रखें। बच्चों को चोरी करने से, झूट बोलने से दूर रखे। उनकी पढाई का पूरा ध्यान रखे। अपनी पढाई के साथ बच्चों का निरीक्षण भी करता रहे। उसे निर्देश देता रहे उनके साथ कुछ भी व्यतीत करे। उनके आचार व्यवहार को देखे। अपनी पवित्र कमाई से बच्चों का पालन पोषण करे। कर्तव्य है इसकी जानकारी उसे दे।

    तीसरा गुरू आचार्य - पिता द्वारा दी गई शिक्षा के पश्चात् बच्चे को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरूकुल के आचार्यों के पास भेज देना चाहिए या फिर से विद्यालय में भेज दिया जाये जहां बच्चों का वास्तविक चरित्र निर्माण हो सके। आचार्य व अध्यापक सुशिक्षित, विद्वान सदाचारी होने चाहिए। विद्यालय में उनकी नियुक्ति भली प्रकार से निरिक्षण करने के पश्चात् होनी चाहिए। वह अपने विषय की पूरी जानकारी रखता हो। महर्षि दयानन्द ने शिक्षा के सुधारको को प्रमुख माना।
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    शिक्षा के प्रति उनके मन्तव्य 

    १. सार्वजानिक शिक्षा :-सभी बच्चों को उच्च व निम्न जाति, गरीब व अमीर, पढ़ने का सामान अधिकार दिया जाए, समान पढ़ाया जाये किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं रखा जाये।

    २. पुत्रियों की शिक्षा :- पर अधिक बल दिया। यदि कन्या सुशिक्षित होगी तो अपने पतिगृह में जाकर अपने बच्चों व परिवार को पूर्ण रूप से समृद्ध करेगी। अतः पुत्रियों को उच्च से शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह परिवार, राष्ट्र और समाज का भला कर सके। अपने बच्चे का भविष्य बना सके।

    ३. राज्य की ओर से शिक्षा का प्रबन्ध :- राज्य सरकार का प्रमुख कर्तव्य है कि वह बच्चों के शिक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं ले माता-पिता को इससे मुक्त रखा जाये माता-पिता को केवल बच्चों को पढ़ाते समय कठोरता का व्यवहार करें। किसी भी प्रकार की ढील नहीं दें उनका स्वाभाव मन से दयालु हो वे उनके शुभचिन्तक हो।

    ४. सह शिक्षा :-राज्य में सह शिक्षा पर कड़ी पाबन्दी लगाई जाये। लड़के व लड़की के विद्यालयों पृथक व आबादी से काफी दुरी पर हो। एक साथ पढ़ने से योन शिक्षा और प्रेम की ओर दोनों आकर्षित होते है जोकि उनके भविष्य के लिए उचित नहीं है।

    ५. शूद्र शिक्षा : - शूद्रों को पढ़ाने के लिए भी महर्षि ने पूरी शक्ति के साथ समर्थन किया और प्रयास किया प्रत्येक जाति के बालकों को पढ़ने का अधिकार दिलाया। महर्षि ने पतन्जलि के महाभाष्य को मान्यता देते हुए कहा है कि बच्चों को नशीली वस्तुओं व अत्यन्त वासना प्रधान वस्तुओं से दूर रखा जाये ताकि पवित्र मन, शुद्ध ह्रदय वाले बने। उनके मन में अभद्र भावनायें न आएं। बड़ों से अभद्र व्यवहार न करें। वे अच्छे आचरण को ही स्वीकार करे। आलस्य से दूर रहें।
    ऋषि की शिक्षा व उनके सिद्धान्त सब बच्चों की सर्वागीण उन्नति कर सकते है। अतः इन्हीं उदेश्यों का आचरण करना चाहिए।

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    अन्नपूर्णा, इन्दौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
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    The Education that is being given in schools on half of Lord Macaulay's principles is not education. This education is not improving the development of children and taking them to the path. They are only moving towards physical education. They are neither able to respect their parents, old people nor are they interested in their service Sushrusha. They do not even think to sit near them and talk. Being attracted towards love, sex, sex education at a young age.

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  • शिक्षा की कमी

    शिक्षा की कमी

    विवाद में कोई तार्किक अपने प्रतिपक्षी की बोलती बंद कर सकता है; उसे निरुत्तर कर सकता है। इतने पर भी यह आवश्यक नहीं कि वह अपने विचार बदल ले। विवाद की पराजय को वह अपनी शिक्षा की कमी मान सकता है या विजेता की धूर्तता, पर उससे समहत होने और अपने विचार बदल लेने की मनःस्थिति में वह कभी नहीं होगा। जो बुद्धि द्वारा समझा या समझाया गया है; उसे स्वीकार कर ही लिया जाए, यह आवश्यक नहीं। यदि ऐसा रहा होता तो तार्किकों ने प्रतिपक्षी लोगों को कब का परास्त कर लिया होता।

  • सम्बन्ध एक मिथ्या

    सम्बन्ध एक मिथ्या - केवल जन्म व मृत्यु के मध्य में ही सम्बन्ध प्रतीत हो रहा है। इसलिए यह सम्बन्ध भी मिथ्या है। जो सामान आज नहीं तो दस दिन बाद अवश्य अपमानपूर्वक छोड़ना पड़ेगा। उसे दस दिन पहले सम्मानपूर्वक क्यों न छोड़ दें? जिस परिवार को दस दिन बाद रोते हुए छोड़ना है उस परिवार को दस दिन पहले हंसते हुए क्यों न छोड़ दें? तो क्या...

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