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विशेष सूचना- Arya Samaj तथा Arya Samaj Marriage और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall. For More information contact us at - 09302101186
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Arya Samaj Mandir

  • Universal Blog

    Arya Samaj Marriage

    विवाह हेतु आवश्यकजानकारीएवं दस्तावेज

    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्टद्वारा सम्पन्न होने वाले विवाह "आर्य विवाह मान्यता अधिनियम-1937, अधिनियम क्रमांक 1937 का 19' के अन्तर्गत कानूनी मान्यता प्राप्त हैं।अखिलभारतआर्यसमाजट्रस्टद्वारावैवाहिकजोड़ोंकीकानूनीसुरक्षा (Legal Sefety)एवंपुलिससंरक्षण (Police Protection)हेतुनियमितमार्गदर्शन (Legal Advice)दियाजाताहै।

    आवश्यक सूचना को ध्यान से पढ़ें -अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट के Recognized & Approved Legal केन्द्र केवल इन्दौर, भोपाल, जोधपुर, रायपुर, बिलासपुर, जबलपुर, डबरा - ग्वालियर तथा चान्द - छिन्दवाड़ा में हैं। इसके अतिरिक्त अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट का अन्य कोई Authorized मन्दिर या शाखा अथवा केन्द्र नहीं है। इसके अलावा किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा चलाये जा रहे किसी भी केन्द्र या शाखा के लिए अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट जिम्मेदार नहीं है। अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट का मुख्यालय इन्दौर (म.प्र.) में है।

    यदि आप अपने स्थान पर ही अपना शुभ विवाह करवाना चाहते है तो अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट के विद्वान पण्डित  द्वारा आपकी अपनी जगह (घर, होटल अथवा धर्मशाला) पर पहुंचकर क़ानूनी एवं वैदिक विधि विधान से आपका शुभ विवाह संपन्न कर दिया जायेगा।

    Arya Samaj Marriage Process –

    1. वर-वधु दोनों के जन्म प्रमाण हेतु हाई स्कूल की अंकसूची या कोई शासकीय दस्तावेज तथा पहचान हेतु मतदाता परिचय पत्र या आधार कार्ड अथवा पासपोर्ट या अन्य कोई शासकीय दस्तावेज चाहिए। विवाह हेतु वर की अवस्था 21 वर्ष से अधिक तथा वधु की अवस्था 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिए।

    2. वर-वधु दोनों को ट्रस्ट द्वारा निर्धारित प्रारूप में स्वयं का घोषणा पत्र - Undertaking प्रस्तुत करना होगा।

    3. वर-वधु दोनों की अलग-अलग पासपोर्ट साईज की 6-6 फोटो।

    4. दोनों पक्षों से दो-दो मिलाकर कुल चार गवाह, परिचय-पहचान पत्र सहित। गवाहों की अवस्था 21 वर्ष से अधिक हो तथा वे हिन्दू-जैन-बौद्ध या सिक्ख होने चाहिएं। गवाह पढ़े - लिखें होने चाहिएं।

    5. विधवा / विधुर होने की स्थिति में पति / पत्नी का मृत्यु प्रमाण पत्र तथा तलाकशुदा होने की स्थिति में तलाकनामा (डिक्री) आवश्यक है।

    6. वर-वधु का परस्पर गोत्र अलग-अलग होना चाहिए तथा हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार कोई निषिद्ध रिश्तेदारी नहीं होनी चाहिए।
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    शादी-माफ़िया दलालों से सावधान- दिल्ली, नोएडा, गाज़ियाबाद, जयपुर, भोपाल, इन्दौर, रायपुर, लखनऊ, चण्डीगढ़, मुम्बई, हैदराबाद आदि बड़े शहरों में वकीलों एवं दलालों के शादी-माफिया के रूप में ऐसे अनेक गिरोह सक्रिय हैं, जो भारत के सभी शहरों में इण्टरनेट, सोशल मीडिया एवं समाचार पत्रों के माध्यम से Arya Samaj, Arya Samaj Mandir, Arya Samaj Marriage, Same Day Court Marriage, Legal Marriage, Love Marriage, Head Office और प्रादेशिक कार्यालय तथा इससे मिलते जुलते नामों से आकर्षक विज्ञापन देकर भोले-भाले युवक-युवतियों को अपने जाल में फंसाकर उन्हें गुमराह कर रहे हैं। Fake Location Map बनाने तथा किसी भी शहर में किसी भी मन्दिर के Location Map पर अपना illegal photo एवं illegal Mobile Phone नम्बर डालने में इनको महारत हासिल हैं। प्रेम विवाह के इच्छुक युवक-युवतियाँ इनके जाल में आसानी से फँस जाते हैं। सही मार्गदर्शन के अभाव में ऎसे युवक-युवतियाँ गलत रास्ते पर भी चले जाते हैं। बाद में पछताने के अलावा इनके पास कुछ नहीं बचता।

    आर्यसमाज विवाह करने हेतु समस्त जानकारियां फोन द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। विवाह सम्बन्धी जानकारी या पूछताछ‌ के लिए आप मो.- 8120018052 पर (समय - प्रातः 10 बजे से सायं 8 बजे तक) श्री देव शास्त्री से निसंकोच बात कर समस्त जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा आपको जिस दिन विवाह करना हो उस मनचाहे दिन की बुकिंग आप फोन पर करा सकते हैं। फोन द्वारा बुकिंग करने के लिए वर-वधू का नाम पता और विवाह की निर्धारित तिथि बताना आवश्यक है।

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    युगलों की सुरक्षा - प्रेमी युगलों की सुरक्षा एवं गोपनीयता की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए तथा माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रेमी युगलों की सुरक्षा सम्बन्धी दिये गये दिशा-निर्देशों के अनुपालन के अनुक्रम में हमारे आर्य समाज द्वारा विवाह के पूर्व या पश्चात वर एवं वधू की गोपनीयता एवं सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए विवाह से सम्बन्धित कोई भी काग़जात, सूचना या जानकारी वर अथवा वधू के घर या उनके माता-पिता को नहीं भेजी जाती है, जिससे विवाह करने वाले युगलों की पहचान को गोपनीय बनाये रखा जा सके, ताकि उनके जीवन की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न न हो सके।

    विशेष सूचना- इण्टरनेट, सोशल मीडिया एवं समाचार पत्रों में प्रसारित हो रहे अनेक फर्जी वेबसाइट एवं आकर्षक विज्ञापनों को ध्यान में रखते हुए जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह शासन द्वारा मान्य एवं लिखित अनुमति प्राप्त वैधानिक है अथवा नहीं। इसके लिए सम्बन्धित संस्था को शासन द्वारा प्रदत्त आर्य समाज विधि से अन्तरजातीय आदर्श विवाह करा सकने हेतु लिखित अनुमति अवश्य देख लें, ताकि आपके साथ किसी प्रकार की धोखाधड़ी ना हो।

    "आर्यसमाज संस्कार केन्द्र"अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट द्वारा संचालित है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट एक सामाजिक-शैक्षणिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। "आर्यसमाज संस्कार केन्द्र" अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट द्वारा संचालित एकमात्र आर्यसमाज संस्कार केन्द्र है। इसके अतिरिक्त ट्रस्ट का अन्य कोई मन्दिर या शाखा अथवा संस्कार केन्द्र नहीं है। आप यह सुनिश्चित कर लें कि आपका विवाह शासन (सरकार) द्वारा आर्यसमाज विवाह कराने हेतु मान्य रजिस्टर्ड संस्था में हो रहा है या नहीं। आर्यसमाज होने का दावा करने वाले किसी बडे भवन, हॉल या चमकदार ऑफिस को देखकर गुमराह और भ्रमित ना हों।

    अधिक जानकारी के लिये सम्पर्क करें -
    (समय - प्रातः 10 बजे से सायं 8 बजे तक)

    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा
    नरेन्द्र तिवारी मार्ग
    बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास
    दशहरा मैदान के सामने
    बैंक कॉलोनी, इन्दौर (म.प्र.) 452009
    फोन : 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajindore.com

    क्षेत्रीय कार्यालय (भोपाल)
    आर्य समाज संस्कार केन्द्र
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    भोपाल शाखा
    पं. दीनदयाल उपाध्याय कन्या-
    महाविद्यालय के सामने
    शिव मन्दिर, बैरागढ़
    भोपाल (म.प्र.) 462030
    हेल्पलाइन : 8989738486
    www.bhopalaryasamaj.com

    क्षेत्रीय कार्यालय (चान्द - छिन्दवाड़ा)
    आर्य समाज संस्कार केन्द्र
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    छिन्दवाड़ा शाखा
    विनायक चौक, वार्ड न. 7, चान्द
    जिला- छिन्दवाड़ा (मध्य प्रदेश)
    हेल्पलाइन : 9300441615, 9009662310
    www.aryasamajchhindwara.com

    क्षेत्रीय कार्यालय (जबलपुर)
    आर्य समाज संस्कार केन्द्र
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    जबलपुर शाखा
    TFF-8, समदड़िया काम्प्लेक्स नं.-1
    चेरीताल, 
    दमोह नाका के पास
    जबलपुर (मध्य प्रदेश) 482002
    हेल्पलाइन : 9300441615
    www.aryasamajjabalpur.com

    क्षेत्रीय कार्यालय (ग्वालियर संभाग)
    आर्य समाज संस्कार केन्द्र
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    ग्वालियर शाखा
    महावीर पुरा, डबरा
    जिला- ग्वालियर (म.प्र.)
    हेल्पलाइन : 8120018052
    www.aryasamajgwalior.com

    क्षेत्रीय कार्यालय (रायपुर)
    आर्य समाज संस्कार केन्द्र
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    रायपुर शाखा
    वण्डरलैण्ड वाटरपार्क के सामने
    DW-4, इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी
    होण्डा शोरूम के पास
    रिंग रोड नं.-1, रायपुर (छत्तीसगढ़)
    हेल्पलाइन : 9109372521
    www.aryasamajraipur.com

    क्षेत्रीय कार्यालय (बिलासपुर)
    आर्य समाज संस्कार केन्द्र
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    बिलासपुर शाखा
    अग्रसेन चौक, सुपर मार्केट
    बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 495001
    हेल्पलाइन : 8120018052, 8989738486
    www.aryasamajbilaspur.com

    क्षेत्रीय सहायता(जोधपुर)
    हेल्पलाइन : 8120018052, 8989738486
    www.aryasamajjodhpur.com 

    क्षेत्रीय सहायता जयपुर (राजस्थान)
    हेल्पलाइन : 8120018052
    www.jaipuraryasamaj.com

    क्षेत्रीय सहायता
    दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र
    (हरियाणा एवं उत्तरप्रदेश)
    Helpline : 8120018052
    www.aryasamajmarriagehelpline.com 

    क्षेत्रीय सहायता (मुम्बई)
    आर्य समाज पण्डित महाराष्ट्र
    हेल्पलाइन : 9109372521
    www.aryasamajonline.co.in  

    क्षेत्रीय सहायता (गुजरात)
    आर्य समाज पण्डित अहमदाबाद
    हेल्पलाइन : 9109372521
    www.aryasamajmarriagehelpline.com

    क्षेत्रीय सहायता (बिहार, झारखण्ड एवं उड़ीसा)
    आर्य समाज पण्डित हेल्पलाइन
    हेल्पलाइन : 9109372521
    www.akhilbharataryasamaj.org

  • आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य - संसार का उपकार करना

    आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य - संसार का उपकार करना

    महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के १० नियमों का निर्धारण वेद के आधार पर करते समय उपरोक्त नियम आर्य समाज के हर सदस्य के लिए उसके जीवन के उद्देश्य के रूप में निर्धारित कर दिया। और फिर इसकी विस्तृत व्याख्या की। शारीरिक, आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नति करना। यह तीन प्रकार की वृति यदि संसार के मनुष्य समाज में हो तो इससे संसार का उपकार हो जाता है।

    प्रथम शारीरिक उन्नति के लिए शरीर को निरोग और स्वस्थ्य रखना तथा परिवार जनों, इष्ट मित्रों और सम्पर्क में आने वाले सब मनुष्यों के शरीर को निरोग और स्वस्थ्य रखना और स्वास्थ्य रखना और शारीरिक विकास करना तथा कराना मनुष्य का उद्देश्य रहना चाहिए।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 25 | The Secret of Wealth Creation the Vedic Way | धन प्राप्ति के वैदिक उपाय | Hinda Vedas

    आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की सोच आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित सत्यनिष्ठा, ईश्वर आस्तिक, परोपकारी, अहिंसक और औरों के काम आने वाली रचनात्मक सोच रहनी चाहिए। आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज का प्रथम नियम निर्धारित किया कि ''सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि का मूल परमेश्वर है। इस सत्य विद्या का स्त्रोत् कहा हैं, इसके लिए आर्य समाज के तीसरे नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने निर्देश दिया कि ''वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म हैं।'' परम शब्द धर्म से पहले लगाकर महर्षि ने मनुष्य को धर्म की पराकष्ठा का ज्ञान कराया और बता दिया कि सब सत्य विद्याओं का ज्ञान अर्जित करने के लिए हमें वेद पढ़ना और पढ़ाना चाहिए। यदि हम पढ़ने पढ़ाने में असमर्थ हैं तो हमें विद्वानों से सुनना और सुनाना चाहिए।

    जो मनुष्य स्वयं वेद पढ़कर या वेद का ज्ञान विद्वान् से सुनकर दूसरे मनुष्यों को वेद का ज्ञान-विज्ञान पढ़ाता है एवं सुनाता है तो यझ यह वेद प्रचार का सबसे बड़ा परोपकार है। सत्य विद्याओं का ज्ञान प्रवाहित करने से सब मनुष्य वेद ज्ञान के ज्ञानी-विज्ञानी बन जाते हैं और उनकी विचारधारों सात्विक व धर्म परायण हो जाती है। धर्म परयाण विचारों से मनसा, वाचा, कर्मणा पूर्ण मनुष्य सामाजिक सात्विक, अहिंसक, परोपकार और यज्ञमय जीवन व्यतीत करने वाला बन जाता है।

    सामाजिक उन्नति और विकास को भी महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मनुष्य आचरण का उद्देश्य निर्धारित किया है। मनुष्य समाज का अंग हैं, जिसमें वह पैदा हुआ, माता-पिता, बहिन-भाई के रिश्ते, वंश के अन्य व्यक्ति, पूर्वजों के साथ उनके रिश्ते और रिश्तों के साथ जुड़े कर्तव्य मनुष्य जीवन का मार्गदर्शन करते हैं। मनुष्य को समाज में सफल और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए धन-ऐश्वर्य की आवश्यकता त्याग भाव से भोगने के लिए वेद ज्ञान में निर्धारित यह व्यक्तिगत आवश्यकता नहीं, बल्कि सार्वजानिक आवश्यकता है।
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    आर्य समाज के नौवें नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने परोपकार की इस भावना से संसार के उपकार करने के मानवीय उद्देश्य को प्रबल शब्दों में कर्तव्य के रूप में बतलाया है'' केवल अपनी उन्नति से ही सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए, बल्कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।'' यह नियम सर्व उपकारी, मनुष्य के व्यक्तिगत और सार्वजानिक विकास और उत्कर्ष अर्जित करने वाला साधन और माध्यम है। इसे अपने जीवन का उद्देश्य माना जाए तो संसार में हिंसा, विरोधाभास, ईर्ष्या-द्वेष, अपराध वृत्ति, झूठ फरेब जैसे दुर्गुण तुरन्त प्रभाव से समाप्त हो जायेगे। आज के इस श्रृंगार रस में डूबे हुए समाज में आपराधिक वृत्ति, आतंकवाद, जाति-पाति पर आधारित भेदभाव और आक्रमणकारी हिंसक प्रवृत्ति का मूल कारण यह है कि हम सबने उपरोक्त वैदिक नियमों का, जिनका महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के दस नियमों में विशेष उल्लेख किया है, का अनुसरण करना छोड़ दिया है। आर्य समाज, अन्य धर्मस्थान व समाज सेवी संस्थाओं ने परोपकारी कार्य करने का प्रयास किया है: जिसे निःशुल्क चिकित्सालय खोले है, पाठशालायें खोली है, यज्ञशाला बनवाई हैं, गौशालाओं का निर्माण किया है, परन्तु इन सबके होते हुए भी कमी मनुष्य के अंतःकरण की पवित्रता की है।

    स्वार्थ सिद्धि ने पवित्रता को, परोपकार की भावना को नष्ट कर दिया है और इसके स्थान पर जोर-जबरदजस्ती ने अपराध की सीमा तक भी पहुँचकर मनुष्य स्वार्थ सिद्धि की पूर्ति के लिए अपने आपको अनैतिकता के दलदल में गिराता चला जा रहा है। मनुष्य के आचरण की पवित्रता के बारे में कवियों ने बहतु सुन्दर कवितायेँ लिखी हैं। एक कवि की दो पक्तियाँ प्रस्तुत है:-

    फरिश्तों से बेहतर है, इन्सान होना। कर्म पर ही निर्भर है, सम्मान होना।।
    वैदिक संस्कृति के मूल्यों का आदर और सम्मान करते हुए मनुष्य कर्म को धर्म अपनी सत्यनिष्ठा से बना लेता है तथा पुरुषार्थ से अर्जित किया हुआ धन-ऐश्वर्या एक व्यक्ति के समक्ष पात्र में आता है और वह ईश्वर का ध्यान करके उनका भोग लगाने वाला है, इतने में एक अतिथि पहुँचता है। वह व्यक्ति वह खाद्य पदार्थ सम्मान उस अतिथि के समक्ष के प्रस्ततु कर देता है। वह गृहस्थी खाद्य पदार्थ के सेवन की इच्छा करने जा रह था, वह उसका कर्म था, अतिथि को प्रस्तुत कर दिया, वह उसका धर्म है।
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    आज जीवन दर्शन है। मनुष्य अपने व्यक्तिगत भोग से पूर्व अपने परिवार, वंश, आसपड़ोस, संपर्क में आने वाले इष्ट, मित्रों, विद्वानों, सन्यासियों का विचार करके उनकी तृप्ति के पश्चात स्वयं ईश्वरीय पदार्थों का भोग करता है, उसको वेद की भाषा में ''तेन व्यक्तेन भुंजीथा'' कहा गया है। इस सृष्टि में परमात्मा ने मनुष्य के भोग व सेवन के लिए नाना प्रकार के पदार्थों की रचना की है, परन्तु उनका त्याग भाव से सेवन करो, त्याग भाव से रहो, यह शिक्षा हमें यज्ञ देता है। हम अपने घर से अपने पुरुषार्थ से कमाई से सामग्री, घृत, मिष्टान आदि यज्ञशाला में ले जाकर यज्ञ की पवित्र अग्नि प्रज्जवलित करके वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ आहुति डालते हैं, वहीँ दूसरी ओर समस्त संसार के वनस्पति, जीव जन्तु मनुष्यों को उसका लाभकारी प्रभाव प्राप्त हो रहा है, इसलिए वेद की भाषा में यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा गया है।

    परम पिता परमेश्वर को हम सब प्राणी जो किसी भी स्थान पर रहते हैं, कोई भी मत रखते हैं, ईश्वर की सत्ता में अवश्य विश्वास करते हैं तो हमारा कर्तव्य बनता है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज नियम की अवश्य पालन करें:-''संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।'' - हरवंश लाल कपूर

    Contact for more info. -
    Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
    Akhil Bharat Arya Samaj Trust
    Bank Colony, Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan,
    Annapurna Road, Indore (MP)
    Tel.: 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajindore.org 

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    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
    अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट
    बैंक कॉलोनी, दशहरा मैदान के सामने
    क ऑफ़ इण्डिया के पास, नरेन्द्र तिवारी मार्ग
    अन्नपूर्णा, इन्दौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajmarriagehelpline.com 

    Maharishi Dayanand Saraswati, while determining the 10 rules of Arya Samaj based on Vedas, laid down the above rules as the objective of his life for every member of Arya Samaj. And then explained it in detail. To make physical, spiritual and social progress. If these three types of nature are in the human society of the world, then it becomes a favor of the world.

     

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  • आर्य समाज विवाह हेतु आवश्यक दस्तावेज एवं जानकारी

    Arya Samaj Marriage अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    विवाह हेतु आवश्यक दस्तावेज एवं जानकारी

    आर्यसमाज विवाह करने हेतु समस्त जानकारियां फोन द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। विवाह सम्बन्धी जानकारी या पूछताछ‌ के लिए आप मो.- 8120018052 पर (समय - प्रातः 10 बजे से सायं 8 बजे तक) श्री देव शास्त्री से निसंकोच बात कर समस्त जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा आपको जिस दिन विवाह करना हो उस मनचाहे दिन की बुकिंग आप फोन पर करा सकते हैं। फोन द्वारा बुकिंग करने के लिए वर-वधू का नाम पता और विवाह की निर्धारित तिथि बताना आवश्यक है। Arya Samaj Marriage Indore Head Office facilitates to book an appointment for marriage. Marriage Services available for All over India as well at affordable fees (Dakshina).

  • आर्यसमाज विवाह आपके अपने स्थान पर

    Arya Samaj Marriage आर्यसमाज विवाह आपके अपने स्थान पर
    समस्त भारत में कहीं भी, कभी भी
    शादी माफिया दलालों से सावधान

    आवश्यक सूचना को ध्यान से पढ़ें - अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट के Recognized & Approved Legal केन्द्र केवल इन्दौर, भोपाल, जोधपुर, डबरा - ग्वालियर, रायपुर, बिलासपुर, चान्द - छिन्दवाड़ा तथा जबलपुर में हैं। इनके अतिरिक्त अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट का अन्य कोई Authorized मन्दिर या शाखा अथवा केन्द्र नहीं है। इनके अलावा किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा चलाये जा रहे किसी भी केन्द्र या शाखा के लिए अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट जिम्मेदार नहीं है। अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट का मुख्यालय इन्दौर (म.प्र.) में है।

    यदि आप अपने स्थान पर ही अपना शुभ विवाह करवाना चाहते है तो अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट के विद्वान पण्डित  द्वारा आपकी अपनी जगह (घर,  होटल अथवा धर्मशाला) पर पहुंचकर क़ानूनी एवं वैदिक विधि विधान से आपका शुभ विवाह संपन्न कर दिया जायेगा।

    अपनी मनपसन्द सजातीय या अन्तरजातीय विवाह Intercaste Marriage करने के इच्छुक युवक-युवतियों की सुविधा, गोपनीयता एवं सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए "अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट" की All India Arya Samaj Marriage Helpline की ओर से भारत के सभी प्रान्तों के सभी जिलों, तहसीलों व नगरों में जहाँ हमारे अधिकृत केन्द्र नहीं हैं वहाँ पहुँचकर वैदिक विद्वान आर्य पण्डितों द्वारा आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार सम्पन्न किया जाता हैं।

  • ईश्वर में अविश्वास क्यों - १

    ईश्वर में अविश्वास क्यों - १

    शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी - शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी का जन्म रामनवमी सावत् १९३८ को मुंशी छोटेलाल के घर नीमच मध्यप्रेश में हुआ। इनकी मेट्रिक तक की शिका इंदौर में हुई। १८ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया, जो जीवन निर्वाह के लिए इन्होंने नौकरी कर ली। उसे छोड़कर कुछ समय पश्चात अपने ससुर की दुकान में स्वर्णकारीगर का कार्य करने लगे। इसमें उन्हें अच्छी सफलता और लोकप्रियता प्राप्त हुई। ३६ वर्ष की आयु में इनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया तब समाज एवं परिवार का बहुत दबाव दूसरे विवाह के लिए पड़ा पर यब उन्होंने विवाह से सर्वथा इंकार कर दिया और अपना अधिक समय धर्मग्रंथो के अध्ययन में लगाने लगे।

    उन दिनों दिल्ली के चांदनी चौक के फुहारे पर दो मौलवी और ईसाई अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। पं. रामचंद्र जी उनके व्याख्यानों में हिन्दू धर्म पर आक्षेपों को सुनकर अपने ऊपर ग्लानि करने लगते। अतः इन्होंने उनके प्रचार का मुकाबला करने के लिए उसी स्थान पर नियमित रूप से व्याख्यान देना शुरू किया। तब लोग इनके उपदेशों से प्रभावित होते चले गये और मौलवी पादरियों के व्याख्यान का प्रभाव नगण्य होता चला गया। इनके व्याख्यानों में इतनी भीड़ होने लगी कि रास्ता ही जाम हो जाता। तब पुलिस ने इनके व्याख्यान के लिए गांधी ग्राउंड निश्चित कर दिया। वहां १४ वर्ष तक इनके निरंतर व्याख्यान होते रहे शनैः शनैः आर्यसमाज के श्रेष्ठ वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हो गये और सारे देश में व्याख्यान और शास्त्रार्थ के लिए जाने लगे। हैदराबाद का निजाम तो इनके व्याख्यानों से हिल गया था। इन्होंने कई ग्रन्थ लिखे हैं। इनके लेखों व्याख्यानों का संग्रह रामचंद्र देहलवी लेखवाली प्रसिद्ध है। अच्छी आयु भोगकर २ फरवरी १९६८ में दिल्ली में इनका स्वर्गवास हुआ।
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    संपादक - आजकल कुछ मित्रादि अथवा दूसरे व्यक्ति जब मुझसे मिलते हैं तो मुझसे प्रायः यह प्रश्न किया करते हैं, क्या कारन है कि ईश्वर के अस्तित्व के विषय में इतने भाषण होते हैं फिर भी लोगों का ईश्वर में विश्वास समाप्त होता जा रहा है ?'' बात सत्य है और मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि लोगों का ईश्वर में अविश्वास बढ़ता जा रहा है। आज ईश्वर में अविश्वास क्यों बढ़ता जा रहा है, इसके कारण हैं ? इसी विषय पर विचार रखूंगा।

    १. परिवार में ईश्वरभक्ति या पूजा का न किया जाना- आजकल परिवारों में न ईश्वरभक्ति है न ईश्वर आराधना किया जाता है, संध्या, अग्निहोत्र आदि की ओर भी कोई ध्यान नहीं है। इसके न होने के कारण ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास समाप्त होता जा रहा है। जहां हर समय रडियो बजता है, सिनेमा के गाने गाये जाते हैं और अल्लाह से ज्यादा नम्बर सुरैया का है, वहां ईश्वर को कौन पूछता है ? जैसा घर का वातावरण होता है वैसा ही प्रभाव पड़ता है। घर में ईश्वरीय भक्ति या पूजा न होने के कारण ईश्वर को भूल जाते हैं, ईश्वर का विचार ही नहीं रहता। ईश्वर में आस्था और विश्वास उत्पन्न करे के लिए ईश्वरभक्ति और पूजा जारी रहनी चाहिए।

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    वेद कथा -18 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म की अनिवार्यता एवं सुख

    २. ईश्वर को ऐसे रूप में रखना जो समझ में न आये - ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, सर्व्यापक है, परन्तु सम्प्रदायी लोगों ने उसको साधारण जनता के सामने उल्टे ढंग से रखा है। सम्प्रदायी लोगों के सामने रख दिया। इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं क्योंकि परमात्मा तो सबको ज्ञान देता है। जब कोई बुरा कर्म करने लगता है तो उसे उस कार्य को करते भय, शंका और लज्जा होती है, परन्तु उस इस ज्ञान को लेता कोई कोई है। जैसे मच्छर सारे में 'पिन-पिन' करता है परन्तु सुनाई उस समय देता है जब वह कान के पास आता है। सम्प्रदायी लोगों ने अपने अज्ञान के कारण मकान के एक आले में गणेश मूर्ति ईश्वर घोषित कर दिया। परन्तु क्या गणेश ईश्वर हो सकता है? कदापि नहीं। क्या हाथी का सिर कभी किसी बच्चे के सिर पर आ सकता है? ऐसी बातों से अविश्वास तो होगा ही। महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में मूर्तिपूजा को अवैदिक बताते हुए इसके खंडन में १६ युक्तियां दी हैं।

    ३. बहुत प्रार्थना करने पर भी इच्छा की पूर्ति न होना- कभी कभी ऐसा होता है कि बहुत बार प्रार्थना कर पर भी इच्छा पूरी नहीं होती। इससे ईश्वर में अविश्वास उत्पन्न होता है। तब लोगों की इच्छा पूरी नहीं होती तो वे कहते हैं कि परमात्मा अपने पुत्र जीवात्मा की इच्छा पूरी करने में (Miserably fail) बुरी तरह फैल हो गया। परन्तु यह बात ठीक नहीं है
    प्रार्थना का फल इच्छा की पूर्ति नहीं अपितु प्रार्थना का फल है अभिमान का नाश, उत्साह की वृद्धि और सहायता का मिलना। कभी मनुष्य किसी कठिनाई कार्य को कर लेता है तो उसकी अपनी शक्ति का अभिमान हो जाता है परन्तु जब वह सोचता है कि ईश्वर अधिक शक्तिशाली है तो उसका अभिमान चूर हो जाता है। जब मनुष्य का ईश्वर में पूर्ण विश्वास होता है तो उसमें उत्साह की वृद्धि होती है और कार्य करते हुए उसमे सहायता भी प्राप्त होती है।

    ४. भगवान जागरूक नहीं, प्रमाद में पड़ा हुआ है -पुलिस कितनी सतर्क है। दिन का तो कहना ही क्या, रात में भी चोर और डाकुओं को पकड़ती है, किन्तु ईश्वर कुछ नहीं करता इसलिए प्रमादी है और उसके प्रमादी होने से ही लोगों में ईश्वर अविश्वास बढ़ता जा रहा है।

    समाधान - यहां एक ही बात के दो हिस्से कर दिये हैं। गवर्नमेण्ट परमात्मा का ही प्रबंध है। वह ईश्वर के कार्य में सहायक है। ईश्वर सब कुछ देखता है परन्तु सब कुछ नहीं कर सकता और सब कुछ करना आवश्यक भी नहीं। परमात्मा सदा जागरूक रहता है, वह प्रमादी कदापि नहीं हो सकता। - शास्त्रार्थ महारथी पं. रामचंद्र देहलवी

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    Shastraartha Maharathi Pt. Ramchandra Dehalvi - Shastharth Maharthi Pt. Ramachandra Dehalvi was born in Ramnavami Savat 1936 in Neemuch Madhya Pradesh, home of Munshi Chhotalal. His metric till Shika took place in Indore. He got married at the age of 14, who took a job for a living. After leaving him, after some time, he started working as a goldsmith in his father-in-law's shop. In this he gained good success and popularity.

     

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  • दहेज प्रथा एक सामाजिक अभिशाप

    दहेज प्रथा एक सामाजिक अभिशाप

    दहेज रूपी भयंकर अजगर से दो परिवार नष्ट हो जाते हैं। जिनके हृदय का टुकड़ा कन्या जली, वो परिवार तो नष्ट हुआ ही, जिन्होंने जला डाला वे भी उम्र भर जेल की चक्की पीसते हैं। जिन्दा मर जाना चाहते हैं, परन्तु मौत तो तब आएगी जब पाप का फल पूरा भोग लेंगे।

    बहुएं जलाने का ९५ प्रतिशत कलंक माताओं के माथे ही लगता है क्योंकि पुरुषों को इतना ज्ञान नहीं होता कि दहेज में क्या कम कीमत का आया और क्या महंगा आया। मातायें ही एक-एक चीज साड़ी, जेवर इत्यादि उठा-उठाकर पति को दिखाती हैं कि ये वस्त्र तो पहनने के लायक ही नहीं हैं, जेवर बहुत कमजोर व हल्के हैं। बहु भी व्यवहार में अच्छी नहीं है, वेतन भी बहुत काम लाती है। पडोसी की बहु का वेतन भी अधिक है, दहेज भी अच्छा लाई थी। हमारे पुत्र में क्या कमी थी। ऐसी ऐसी बातें कर करके पति और पुत्र दोनों अपने साथ मिला लेती हैं, और एक दिन बन्द कमरे में सब मिलकर उस निहत्थी एवं निर्दोष कन्या को जलाकर राख कर देते हैं। पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है, माँ देखती रह जाती है। पछतावे के सिवाय हाथ में कुछ नहीं लगता।

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    Ved Katha Pravachan - 26 | Explanation of Vedas | धार्मिक शंका समाधान - प्रश्नों के उत्तर

    सरकार की कमजोरी प्रशासनिक व्यवस्था एवं कम सजा के कारण जलाने वाले को फाँसी नहीं लगती, जो कि लगनी चाहिए, परन्तु उम्र भर चक्की पीसनी पड़ती है। लोभी माँ से अब कोई पूछे कि तूने अपनी घर की अनमोंल निधि अपनी निर्दोष एवं पूजा के योग्य पुत्रवधु, जिनके कारण तेरा घर बच्चों की किलकारियों से गुंजायमान होना था, उसे जलाकर तूने क्या हासिल किया, तू तो अपना पुत्र भी गंवा बैठी।

    आश्चर्य का विषय है कि जिस देश में नारी का इतना सम्मान रहा हो कि देश का नाम भी उसी के नाम से रखा गया हो- 'भारत माता', भारत पिता नहीं, वहाँ नारी की आज यह दशा। किसी बड़े से बड़े राष्ट्र ने भी कभी देश का नाम नारी के नाम से नहीं रखा होगा। भारतवर्ष के अतिरिक्त कोई भी अन्य देश चाईना माता, इंग्लैंड माता, अमेरिका माता, जैसे नामों से नहीं जाने जाते है। नारी जाति को इतना बड़ा सम्मान केवल और केवल 'भारत माता' कहकर इसी राष्ट्र ने दिए।

    वेद जो कि हमारी गाइड बुक हैं, हमारी धर्म पुस्तक हैं, उसमें भी नारी के अति विशेष सम्मान देते हुए वर्णिंत किया गया है कि : 'यत्र नारी पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः' अर्थात् जहाँ नहीं का सम्मान किया जाता है वहां पर देवता निवास करते हैं। फिर भी इसी देश में क्यों नारी पर समय-समय पर अत्याचार होते आए हैं। सति प्रथा भी इसी देश में हुई। राजा राम मोहन राय ने जब जिन्दा नारी को जलाते और चिल्लाते हुए देखा तो उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा। उन्होंने विचार किया कि यदि पति के बाद पत्नी को जला दिया है तो पत्नी के बाद पति को क्यों नहीं। इस प्रथा को मिटाने के लिए कानून बनाकर नारी जाति पर बहुत बड़ा उपकार किया। पूरी नारी जाति का मस्तक उनके सामने नतमस्तक हो उठा। श्रीराम जो कि ह्रदय से जानते थे कि सीता सर्वथा निर्दोष और शत प्रतिशत पतिवृता है, फिर भी अग्नि परीक्षा ले ली। एक मूर्ख व्यक्ति के कहने पर ही घर से निष्कासित कर दिया। निर्दोष द्रौपदी का चीर हरण भी तो इसी देश में हुआ।

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    बुद्धि परिणामतः इतनी बढ़ी कि नारी प्रधानमंत्री तक के पद पर आसीन हुई। नारी ने चैन की सांस ली और महर्षि दयानन्द उपकारों आगे नतमस्तक हो गई हो गई। परन्तु समय ने ऐसी करवट बदली की धन के लोभ ने पढ़ी-लिखी माँ को भी अन्धा कर दिया। सरकार ने बहतु कानून बनाए, परन्तु इस भयंकर अजगर रूपी दहेज प्रथा को नहीं रोक सकी। सरकार भी इसमें कहाँ तक करे, क्योंकि ये जो घर की बात ठहरी, जो कि लोगों के ह्रदय परिवर्तन किए बिना हल नहीं हो सकती। इसलिए आवश्यकता है ह्रदय परिवर्तन की। धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक प्रवृति के लोगों को मानवीय उपदेशों द्वारा लोगों का ह्रदय परिवर्तन करना होगा।

    मैं समझती हूँ की इस ओर आर्य समाज की भी एक भारी जिम्मेदारी है। आर्य समाज सदा ही अपने मिशन में कोई न कोई जटिल समस्या रखकर उससे जुड़ता रहा है। आर्य समाज का इतिहास गवाह है कि प्रारम्भिक दौर में आर्य के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने समाज में व्याप्त हर बुराई और कुरीतियों का डटकर मुकाबला किया है और उसे दूर भी किया। किन्तु आज मानो आर्य समाज थक सा गया है। आज सैकड़ों समस्यों और बुराइयों को देखते हुए भी आर्य समाजियों ने आँखे बन्द कर रखी हैं, और यदि आर्य समाज ही सो गया तो सारे समाज का क्या होगा? सभी बुद्धि जीवी मानते हैं कि आर्य समाज सत्य, संघर्ष, शालीनता, सुन्दरता, स्वाभिमान का आदर्श है जो हर जगह संजीवनी का कार्य करता रहा है तो ऐसे अवसर पर आर्य समाज क्यों पीछे रहें?

    बन्धुओं ! आइए नारी के लिए सदा संघर्षशील यह समाज आज और एक संकल्प लेना चाहता है। दहेज रूपी राक्षस जो कि नारी के उत्पीड़न का साधन है, को मिटाकर समाज में एक आदर्श स्थापित करें। जब-जब नारी पर अत्याचार या विपत्तियाँ आई आर्य समाज ने सदा नारी की रक्षा एवं संरक्षण की है। आज भी दहेज की आड़ में नारी शोषित हो रही है और नारी पर अनेक अत्याचार कियें जा रहें है।

    आर्यसमाज को आज की तारीख में एक यही मोर्चा लेकर अपना आन्दोलन चलाना चाहिए। हर आर्यसमाजी संकल्प ले कि न तो वह दहेज लेगा और न दहेज देगा। लेने की भावना रखना और न देने के लिए आन्दोलन चलाना भी एक भयंकर स्वार्थ है, यहीं अधर्म है इसलिए न्याय समान होना चाहिए। हमें न ही दहेज चाहिए और न ही किसी को दहेज देंगे। साथ ही आजकल विवाह में दिखावें के लिए लाखों रुपयें टेन्ट, फार्म हाऊस आदि के नाम पर खर्च किये जा रहें है। आखिर रुपयों का इतना अधिक आप व्यय क्यों हो रहा है?

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    आर्य समाज आह्वान करें अपने सदस्यों से कि विवाह में अधिक व्यव न करें। पहले पाकिस्तान में हमारे ग्रामिण क्षेत्रों की पंचायत ऐसे अपव्यव अपर अंकुश लगाती थी। अधिक व्यय करने वालो को ढण्ड दिया जाता था। आज आवश्यकता है कि आर्यसमाज भी एक पंचायत के रूप में भूमिका निभायें। दहेज और अधिक अपव्यव का संविधान पारित कर अपने सदस्यों में लागू करें और कठोरता से चाहे नैतिकता के आधार पर हो या दण्डीय आधार पर हो उसका पालन किया जायें। आर्य समाज का हर मंदिर इस पंचायत का कार्यालय होगा। इसेक हर सदस्य इस नियम का पालन करेंगे और यदि हम पालन करने में सक्षम हुए तो हजारों-लाखों लोग उस राक्षस से बचने के लिए हमारी शरण में आयेंगे। अपने नियम व शर्तों के आधार पर वे भी इस आन्दोलन के भागी बनेंगे। मैं आर्य समाज की प्रत्येक इकाई से प्रार्थना करती हूँ कि इस सुझाव पर विचार कर अपने समाज में इस व्यवस्था को लागू करें। अगर ऐसा हो जाता है तो धनाढ्य वर्ग की नकल करके दिखावे की जिन्दगी जीने वाला मध्यवर्गीय दहेज और अधिक खर्चे के बोझ से बच जाएगा और तब न कोई बेटी के जन्म पर मातम मनाएगा और न ही नारी को नरक का द्वार कहेगा। 
    आर्यों ! आईये विचार कीजिये और इस समस्या का समाधान हम अपनी आर्य समाज से ही शुरू करते हैं। मुझे विश्वास है आप सभी अपनी समाज में आदर्श स्थापित करने के लिए पहले स्वंय कदम बढ़ायेंगे। - श्रीमती प्रेमलता शास्त्री

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    95% of the stigma of burning a daughter-in-law is felt on the foreheads of the mothers, because men do not have much knowledge about what came less in dowry and what came more expensive. Mothers only pick one thing, sari, jewelry etc. and show the husband that these clothes are not suitable for wearing, the jewelry is very weak and light. Bahu is also not good in practice, salary also brings a lot of work. Neighbor's daughter-in-law's salary is also high, dowry was also good. What was lacking in our son.

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  • नारी का उत्थान मानव जाति का उत्थान है

    नारी का उत्थान मानव जाति का उत्थान है

    मनु ने नारी के सम्बन्ध में अत्यन्त ही सामयिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
    आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः। 
    अर्थात् जो स्त्रियां अपनी रक्षा अपने आप ही करती हैं, वही सुरक्षित रहती हैं। आज के परिवेश में नारी के इस स्वरूप को स्वीकार किया है। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है- 'जब कहा जाता है कि नर और नारी, पुरुष और पृकृति के भांति हैं, तो इसका अभिप्राय यह होता है कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी मूलतः पुरुष की शिक्षक है। वैदिक युग में धर्म की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति यज्ञ था। इसमें पति-पत्नी दोनों भाग लेते थे। दोनों मिलकर प्रार्थना करते थे और आहुतियां डालते थे। हारीत ने स्त्रियों को ब्रम्हवादिनी और सुद्योवधु के सम्बोधन से सम्बोधित किया है। नारी सामाजिक बोध और व्यवहार के समान रूप से दक्ष होती है। वर्तमान में नारी जागरण को के स्वरूप को देखकर योगेश चन्द्र घोष ने लिखा है- आल दैट इज बेस्ट इन विमेन आज रेज्ड टू ए स्टेट आफ हाई इमिनेन्स।' अर्थातः नारी परम श्रद्धा की अधिकारिणी है।

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    Ved Katha Pravachan - 24 | Explanation of Vedas | वेद में धन प्राप्ति के मन्त्र

    भारतीय संस्कृति में वैदिक युग से ही नर-नारी की प्रति सम्मान का भाव नारी सृष्टि के उपादान का प्रथम सोपान है। मानव सभ्यता के विकास के इतिहास में पुरुष एवं प्रकृति का महत्व समान रूप से स्वीकार किया गया है। विभिन्न सभ्यताओं के उतार-चढाव के कारण सामाजिक विकृतियां उत्पन्न हुई और इन विकृतियों ने समाज को पुरुष प्रधान के शासन की ईकाई के रूप में प्ररिणत कर दिया। उपनिषद और ब्राह्मण के युग में सामाजिक सत्व का विस्तार हुआ और नारी-सम्मान की सामाजिक मान्यता दृढ़ता की ओर अग्रसर हुई किन्तु स्मृति एवं पुराण के युग में नारी के अस्तित्व को चुन्नौती दी जाने लगी। वस्तुतः नारी प्रकृति की एक ऐसी सत्ता है जिसके सभी उपासक एवं मित्र हैं। किसी न किसी रूप में सभी नारी के सम्मान को स्वीकार करते हैं। इसलिए मनु ने लिखा है- 

    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
    अर्थात् जिस कुल में स्त्रियां पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहां स्त्रियों का अपमान होता है, वहां सभी यज्ञादि कर्म निष्फल होते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में नारी सम्मान की सामाजिक मान्यता धर्म और शास्त्रों में मर्यादित थी।
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    The women who protect themselves on their own are protected. In today's environment, we have accepted this form of woman. Dr. Radhakrishnan has written - 'When it is said that male and female are like men and background, it means that they are complementary to each other. Woman is basically a teacher of men. The biggest expression of religion in the Vedic era was Yajna.

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  • प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - १

    प्रकाश पुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती - १

    आदिकाल से ही आध्यात्मिक की पुण्य पावन सलिला सतत् प्रवह्मान होकर भारत भूमि को पुनीत करती रही हैं। भारत का प्रत्येक प्रान्त इसके पवित्र स्पर्श से स्नात हुआ हैं। भारत का प्रान्त पंजाब जहां गुरुओं, पीरों फकीरों व वीरों की भूमि होने के निमित्त पवित्र है वहीँ गुजरात मनीषियों व क्रान्तिद्रष्टा महापुरुषों की जन्मभूमि होने का सौभाग्य रखता है। गुजरात जन्मभूमि है- विश्व को अहिंसात्मक क्रान्ति का मार्ग दर्शाने वाले महापुरुष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की। गुजरात मतृभूमि है- ५५२ रियासतों में विभक्त खण्ड-खण्ड बंटे भारत का एकीकरण करने वाले कुशल राजनीतिज्ञ लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की और गुजरात को सौभाग्य प्राप्त है- समस्त राष्ट्र में व्याप्त अज्ञानांधकार को चीरकर ज्ञान की प्रचण्ड दीपशिखा का प्रकाश प्रसारित करने वाले तथा राष्ट्रवासियों के हृदयों पर जमी हुई पाखण्ड की परत पर कुठाराघात कर उसे खण्डित करने वाले दिव्य शक्तिपुंज महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की जन्मभूमि होने का। सन् १८२४ को काठियावाड़ के टंकारा ग्राम में अवतरित महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसा दिव्य व्यक्तित्व विश्व में एक ही बार पदार्पण करता है। उन जैसा कोई सत्यव्रती न बन सका क्योंकि एक वही मूलशंकर थे जो मंदिर में उठी आशंकाओं के समाधान हेतु परम प्रकाश की तलाश में गृह त्याग कर दृढ़ता से प्रवृत हो सके तथा परम तत्व को पा सके। इसीलिए केवल वही एक ऐसा अलौकिक व्यक्तित्व था जो स्वामी पूर्णानन्द का शिष्यत्व और स्वामी विरजानन्द की आशीष ग्रहण कर मूलशंकर से महर्षि स्वामी दयानन्द बनने का गौरव पा सका।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 29  | सम्पूर्ण विश्व के सुख व कल्याण की कामना | यजुर्वेद मन्त्र ३०.३

    राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियां -
    साकार दिव्य, गौरव-विराट पौरुष का पुंजीभूत ज्वाल,
    मेरी जननी का हिमकिरीट 
    मेरे भारत का दिव्य भाल जहां कहीं एकता अखण्डित,
    जहां प्रेम का स्वर है।
    देश-प्रेम में वहां खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।
    भारत के विराट गौरव ज्वाल से आलोकित इस दिव्य भाल की भास्वरता का श्रेय जाता है - ऋषिवर दयानन्द जैसे महामनीषियों को, संतों-महात्माओं को, विद्वानों को, दिव्य पुरुषों को क्योंकि महनीय व्यक्तियों की महनीयता उनके कर्म के असाधारणत्व में निहित रहती है। कर्म की यही विशेषता उन्हें जान-साधारण से कहीं उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित कर देती है और वे अनुकरणीय व्यक्तित्व बन जाते हैं। ऐसे ही महापुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवनानुभव विश्व के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गए। धन्य है ऐसा व्यक्तित्व जो स्वयं गरल ग्रहण करके सत्य व स्नेह की अमृत वर्षा करता रहा। धन्य है वह व्यक्तित्व जो विरोध के पत्थरों का धैर्यपूर्वक सामना करता हुआ मानव मंगल के पुष्प लुटाता रहा।

    मानव-मंगल हेतु ही ऋषिवर ने तत्कालीन परिस्थितियों के दृष्टिगत तीन प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए - वैदिक धर्म का प्रचार, राष्ट्रीय भावना का प्रसार व समाज सुधार।

    तत्कालीन परिवेश में धर्म वास्तविक अर्थों में प्रायः विलुप्त हो चूका था। उसका अस्तित्व पाखण्डों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, विभ्रमों व अज्ञान के अंधकार के नहर में खो चूका था। महर्षि ने वैदिक धर्म के प्रचार द्वारा ज्ञान का ऐसा अकाशदीप प्रज्वलित किया जिसके प्रकाश ने तत्कालीन परिवेश को तो आलोकित किया ही वह तो आज भी ज्ञान के तिमिर का छेदन कर रहा है।
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    वेदों के प्रति उनका दृष्टिकोण पूर्णतः वैज्ञानिक था। संस्कृति के प्रति वे पूर्वाग्रही कदापि नहीं थे। यही कारण है कि उनके गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन का परिणाम है - 'सत्यार्थ प्रकाश।' सत्यार्थ प्रकाश के रूप उस दिव्य विभूति ने एक ऐसा शाश्वत प्रकाश-स्तम्भ मानव जाति को प्रदान कर उपकृत किया जिसमें प्रत्येक युग में मानव संततियों का मार्दर्शन करने की असीम क्षमता विद्यमान है। इस तथ्य की पुष्टि करता है हमारा इतिहास। भारतीय स्वतंत्रता के अग्रदूत अनेक क्रांतिकारियों के जीवन व विचारधारा पर 'सत्यार्थ प्रकाश' का गहन प्रभाव पड़ा चाहे वे गर्म दलीय नेता 'बाल लाल पाल' थे, देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले नौजवान सभा के भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव थे, या रणबांकुरे आज़ाद, यशपाल थे, चाहे कालापानी का भयावह दण्ड भोगने वाले वीर सावरकर थे, चाहे अंग्रेजों को रणभूमि में ललकारने वाले सेनानायक सुभाषचन्द्र बोस थे या लाला हरदयाल, सरदार अजीत सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, यतिन्दास जैसे मां भारती के वीर सपूत थे या फिर 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है' जैसी अंग्रेजी सत्ता को सीधी चुनौती देने वाली पंक्तियों के रचनाकार काकोरी कांड के सूत्रधार क्रान्तिकारी पं० रामप्रसाद बिस्मिल थे जिनकी जीवन दिशा ही 'सत्यार्थ प्रकाश' व आर्य समाज के सिद्धान्तों ने परिवर्तित कर दी थी। जिस प्रकार महर्षि की विचारधारा ने क्रान्तिकारियों को प्रभावित किया उससे उस महनीय व्यक्तित्व की राष्ट्रीयता स्वतः ही ध्वनित हो जाती है। वास्तव में स्वामी जी के पश्चात महात्मा गांधी , पंडित नेहरू जैसे देश के नेताओं ने भारत के सामाजिक विकास हेतु जो लक्ष्य निर्धारित किए, उनका सूत्रपात स्वामी दयानन्द द्वारा पहले ही हो चूका था।

    स्वामी जी ने राष्ट्रवासियों में देशाभिमान जागृत किया, उन्हें स्वराज्य की उत्कृष्टता का पाठ पढ़ाया। वे ही प्रथम महापुरुष थे जिन्होंने भारत को भारतीयों के लिए घोषित किया। स्वयं संस्कृत के प्रकांड पंडित और मातृभाषा गुजराती के विद्वान होते हुए भी उन्होंने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने मद्रास से प्रकाशित पत्र 'हिन्दी प्रचार समाचार' में वक्तव्य दिया- 

    ''हिन्दी के द्वारा सारा भारतवर्ष एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। हिन्दू तो इसके झण्डे के नीचे आ ही जाएंगे, मुसलमानों के लिए भी इसको अपनाना आसान होगा क्योंकि उर्दू भाषा का सारा ढांचा हिन्दी का ही रूप लिए है।'' -श्रीमती सुशील बाला

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    The Majesty of India is attributed to the Magnificence of this divine spear, illuminated by the great pride of India - the great sages like Rishivar Dayanand, the saints, the scholars, the divine men, because the dignity of the important people lies in the extravagance of their deeds. This characteristic of karma makes him distinguished on a higher level than life and he becomes an exemplary personality. In this way, the great experience of Maharishi Dayanand Saraswati became the inspiration for the world.

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  • महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १

    महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - १ 

    भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब महर्षि दयानन्द ने अपने व्याख्यानों, शास्त्रार्थों और ग्रन्थों के द्वारा विदेशी धर्मों का खण्डन किया। भारतीय सम्प्रदाय और धर्म तो एक दूसरे का खण्डन करते ही रहते थे। शाक्त, शैव, वैष्णव सम्प्रदाय परस्पर एक दूसरे का खण्डन करते रहे हैं। आद्य शंकराचार्य ने जैनों और बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त किया और उनके धर्मों का खण्डन करके उनको परास्त कर वैदिक धर्म की स्थापना की। उनके प्रचार और शस्त्रार्थों से बौद्ध धर्म तो भारत में समाप्तप्राय हो गया। किन्तु मतखण्डन पूर्वक स्वमत स्थापना की परम्परा तो भारत में आदि काल से चली आ रही है।

    महर्षि दयानन्द ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों का एक समान विधिवत् खण्डन किया है। इससे भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों के दुराग्रही अन्धविश्वासी लोगों में कुछ तनाव की भावना आई। इससे कुछ लोगों में यह धारणा बन गई है कि महर्षि दयानन्द ने खण्डन मार्ग पर चलकर दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति सदभाव को छोड़ वैमनस्य का मार्ग अपनाया। है। इससे भारत के विविध धर्मो के अनुयायियों के बीच तनाव बढ़ा है। अब हम कुछेक पक्तियों में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे कि क्या महर्षि दयानन्द ने खण्डन का मार्ग अपना कर तनाव उत्पन्न किया है अथवा धर्म के इतिहास में एक नै जागृति उत्पन्न की है और प्रत्येक धर्म को वैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का यत्न किया है, सभी धर्मो को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है?

    महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की रचना बड़े शुद्ध भाव और सत्यान्वेषण की दृष्टि से की है। वे सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मत में हैं वे पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धांत अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल सबके मत में है उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें है उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें बर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इन हानि ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है- सब मनुष्यों को दुख सागर में डूबा दिया।'' महर्षि पुनः लिखते हैं- 'यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसे ही दूसरे देशस्थ या मतोन्नति वालों के साथ भी बर्तता हूँ। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में बर्तता हूँ वैसा विदेशियों के साथ भी तथा विषय में बर्तता को बर्तना योग्य है।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan - 21 | Introduction to the Vedas | विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन

    महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की उत्तरार्ध अनुभूमिका में एक सार्वभौम मत का प्रवर्तन करने के लिए लिखते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्ध वाद नहीं छूटेगा तब तक अन्योअन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिए यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ने ही सबको विरोध जल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहे तो अभी ऐक्य मत हो जाय।

    शास्त्रार्थ परम्परा और सत्यान्वेषण का समर्थन करते हुए मर्हिष दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की अनुभूमिका-२ में बारहवाँ समुल्लास आरम्भ करने से पहले लिखते हैं जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद या लेख न किया जाय तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता तभी विद्वानों को महा अंधकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुख्य काम है।
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    सत्यार्थप्रकाश के विद्वानों से हमने यह सिद्ध करे का प्रयास किया है कि सत्यासत्य के निर्णय के लिए प्रीति से शास्त्रार्थ परम्परा को चलाना परम आवश्यक है और इसी दृष्टी से महर्षि ने अपने समय में प्रचलित सभी मतमतान्तरों की समीक्षा की है। अब हम महर्षि की जीवनी की ओर आते हैं और यह देखने का यत्न करते हैं कि उनका विविध धर्मो के अनुयायिओं के प्रति कैसा व्यवहार था। महर्षि सन्यासी होने के नाते ''सर्वभूतहिते रतः'' (सब प्राणियों का कल्याण करने वाले थे ) वे 'शठे शाठ्यं समाचरेत्'- दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार-सिद्धान्त को मानाने वाले नहीं थे। वे तो दुष्टों के प्रति भी सज्जनता का व्यवहार करते थे। वे कहा करते थे - यदि दुष्ट अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ते तो सज्जन अपनी सज्जनता को क्यों छोड़े? किसी कवी ने सज्जन का बड़ा सुन्दर लक्षण किया है:- 

    ते साधवः सुजन्मानस्तैरीयं भूषिता धरा। अपकारिषु भूतेषु ये भवन्त्युपकारिणः||
    उन सज्जनों का जन्म लेना सार्थक है और ऐसे सज्जनों से धरती शोभायमान होती है - जो दुष्टों का भी उपकार करते हैं। सच पूछिए तो महर्षि ऐसे ही सज्जन थे।
    महर्षि दयानन्द ''वसुधैय कुटुम्भकम'' को मानाने वाले थे। वे समस्त संसार को अपना परिवार समझते थे। उनके लिए अपने-पराये नाम की कोई बात नहीं थी। उन्होंने सभी धर्मो के आचार्यों को एक मंच पर लाने का यत्न किया। उनकी जीवनी का एक प्रसंग यह है:- दिसम्बर १८७६ में दिल्ली में राजदरबार हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के महोत्सव के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा के महोत्सव हो रहा था। वहां महारानी विक्टोरिया के उपलक्ष में एक बड़ी राजसभा होने वाली थी। उसके लिए सभी राजे-महाराजे और प्रतिष्ठित नागरिक राज-निमंत्रण से वहाँ एकत्र हो रहे थे। कहा जाता है कि महाराजा इंदौर ने ऐसे अवसर पर धर्म-प्रचार करे के लिए महरिष को निमन्त्रित किया था। वे राजमण्डल में भी उनका भाषण कराना चाहते थे।

    राजदरबार के अवसर पर महर्षि के सत्संग का लाभ उच्चकोटि के लोगों ने उठाया। महर्षि तो चाहते थे कि राजाओं, महाराजाओं की सभा करके सब आर्यो में एक धर्म और एकता का तांगा पिरो दिया जाय परन्तु अनेक कारणों से इनमे सफलता न होते देख एक दिन महर्षि ने अपने स्थान पर भारत के भिन्न-भिन्न मतों और जातीय नेताओं की एक सभा बुलाई। उनके निमन्त्रण पर पंजाब के प्रसिद्ध सुधारक कन्हैयालाल जी अलखधारी, श्रीयुत नवीनचन्द्रराय, श्री हरिश्चंद्र चिंतामणि, सर सैय्यद अहमद खां, श्री केशवचन्द्र सेन और श्री इंद्रमन जी- ये छह सज्जन वहाँ पधारे। वहाँ महर्षि ने यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि हम भारतवासी सब परस्पर एक मत होकर एक ही रीती से देश का सुधार करें तो आशा है भारत देश सुधर जावेगा, किन्तु कई मौलिक मतभेद होने के कारण वे सब एकता के सूत्र में सम्बद्ध न हो सके। - विश्वनाथ शास्त्री

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    This was the first time in Indian history when Maharishi Dayanand repudiated foreign religions through his lectures, lectures and texts. Indian sects and religions used to contradict each other. The Shakta, Shaiva and Vaishnava sects have been contradicting each other. Adya Shankaracharya debated with the Jains and the Buddhists and disbanded their religions and defeated them and disbanded their religions and defeated them and established the Vedic religion. 

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  • महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - २

    महर्षि दयानन्द और सर्व-धर्म सदभाव - २

    महर्षि दयानन्द को अपने सिद्धांत प्यारे थे परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वे अन्यों के सिद्धांत की अवहेलना करते थे। वे बड़े सहनशील थे। वे पौराणिक या हिन्दू धर्म के मूर्ति-पूजा आदि सिद्धांतों की शास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा करते हुए भी हृदय को विशालता के कारण हिन्दू धर्म को उदार ही मानते थे। अपने जीवन के एक प्रसंग में वे १८७७ के लगभग अमृतसर पहुंचे। वहां के कमिश्नर की प्रार्थना पर महर्षि उनके बंगले पर पधारे। वार्तालाप करते हुए कहा कि- ''हिन्दू धर्म को'' सूत के समान कच्चा'' क्यों कहते हैं? महर्षि ने उतर दिया- ''यह कच्चा नहीं किन्तु लोहे से भी कड़ा है। हिन्दू धर्म समुद्र के समन है। इसमें अनेक अच्छे और बुरे मतों के तरंग विद्यमान है, सदाचारी हैं, परोपकार परायण रहते हैं और एक निराकार परमेश्वर को अपने मनो मन्दिर में पूजते हैं। इनके विपरीत लोग भी हिन्दू धर्म में पाए जाते है जो महाक्रूर, अनाचारी, वामी हैं; कोरे नास्तिक, अवतारों को मनाने वाले हैं। यहाँ योगी, ध्यानी, तपस्वी, और आजीवन ब्रम्हचारी रहने वाले भी विद्यमान हैं और ऐसे भी अनेक हैं - जिनका उद्देश्य आमोद-प्रमोद और संसार का सुख है। हिन्दू धर्म में छुआ-छूत मानने वाले सैकड़ों हैं वहाँ सबक साथ भोजन करे वाले हजारों हैं। परमार्थी-दर्शी और तत्वज्ञानी लोग इस धर्म में उच्च पद के पाए जाते हैं और ऐसे भी मिल जाते हैं जो ज्ञान के पीछे डण्डा लिए डोलते हैं। उत्तम माध्यम और निकृष्ट विचारों-अचारों के सभी मत और उनके मानने वाले मनुष्य इस मार्ग में मिलते हैं। वे सभी हिन्दू हैं और उन्हें कोई हिन्दूपन से निकाल नहीं सकता इसीलिए हिन्दू धर्म निर्बल नहीं किन्तु परम सबल हैं।''

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Ved Katha Pravachan -22 | Explanation of Vedas & Dharma | परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य

    प्रायः सभी धर्म अपने मत को सर्वश्रेष्ठ और अन्यों को दिन समझते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण वे अपने धर्म के विरुद्ध किसी बात को सुनना नहीं चाहते। इसी प्रवृत्ति के कारण भारत में प्रचलति सभी धर्म महर्षि के खण्डन से उनके विरोधी बन गए परन्तु महर्षि ने तो खण्डन का मार्ग सत्यासत्य के निर्णय के लिए अपनाया था। वे किसी के दिल को दुखाना नहीं चाहते थे। वे सैंद्धांतिक दृष्टि से सभी धर्मो का खण्डन करते थे, किन्तु सभी धर्मों के अनुयायिओं से प्रेम करते थे, विरोधियों का भी हित किया करते थे। अपने हत्यारों को भी क्षमा कर देते थे और उनके कल्याण के लिए यत्न शील रहते थे। महर्षि के जीवन से सम्बन्धित एक और घटना लगभग १८६७ में वे अनूपशहर में प्रचारार्थ पहुंचे। वहां एक ब्राह्मण ने रुष्ट होकर उन्हें पान में विष दे दिया। महर्षि ने न्यौली कर्म करे विष को अपने शरीर से निकाल दिया। सैय्यद मुहम्मद तहसीलदार, जो महर्षि के भक्त थे, ने जब यह समाचार सुना तो ब्राह्मण को कैद कर लिया। तहसीलदार का विचार था कि मेरे इस कर्म से महर्षि प्रसन्न होंगे,किन्तु जब उसने महर्षि ने यह बात बताई तो महर्षि अप्रसन्न हो गये और उन्होंने कह कि - ''मैं दुनिया को कैद कराने नहीं बल्कि उसे कैद से छुड़ाने आया हूँ। वह यदि अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता तो हम अपनी श्रेष्ठता क्यों छोड़ें?

    महर्षि का ईसाइयों के प्रति कैसा सदभाव था? ईसाइयों के गिरजाघरों के प्रति उनकी कैसी भावना थी? यह जानने के लिए एक घटना का उल्लेख करते है जो महर्षि के जीवन से सम्बंधित हैं - १८७६ के लगभग महर्षि बरेली पहुंचे। वहां उनके व्याख्यान होते थे। महर्षि का पादरी स्कॉट के साथ स्नेह सम्बन्ध था। वे नहीं आये तो महर्षि ने व्याख्यान के बाद पूछा कि भक्त स्कॉट क्यों नहीं आये? पता चला कि वे रविवार को गिरजाघर जाते हैं। महर्षि ने कहा कि चलो आज भक्त स्कॉट का गिरजाघर देख आएँ। महर्षि तीन चार सौ मनुष्यों के साथ गिरिजा में पहुंचे। महर्षि को आते देख पादरी स्कॉट वेदी पर से नीचे उतरकर आए और महर्षि को उपदेश देने के लिए प्रार्थना की। महर्षि ने उनके आग्रह पर वहाँ उपदेश दिया
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    महर्षि का मुसलमानों के प्रति भी बड़ा स्नेहपूर्ण व्यवहार था और अभिजात वर्ग के मुसलमान भी उनका आदर करते थे। १८७३ के आसपास की बात है- महर्षि अलीगढ पहुंचे। वहां मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ के संस्थापक और प्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर सैय्यद अहमद खां महर्षि की सेवा में प्रायः नित्य आया करते थे। एक दिन सैय्यद साहिब कई प्रतिष्ठित मुसलमानों और अंग्रेजों सहित महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए और अग्निहोत्र की उपयोगिता पर वार्तालाप होता रहा। १८७६ में दिल्ली में राजदरबार के अवसर पर महर्षि ने सर्वधर्म एकता का आयोजन किया। इस गोष्ठी में परस्पर सौहार्दपूर्ण वार्तालाप हुआ।

    लगभग १८७७ में महर्षि लाहौर पधारे। उनको लाहौर बुलाने में अधिक हाथ ब्रम्ह समाजियों का था। उन्होंने महर्षि के दो व्याख्यान अपने मन्दिर में कराए। प्रथम व्याख्यान 'वेद ईश्वरीय' विषय पर था और दूसरा 'पुनर्जन्म ज्ञान' पर। ये दोनों व्याख्यान ब्रम्ह समाज के मंतव्यों के विरुद्ध थे। इसलिए ब्रम्ह समाजी उनका विरोध करे लगे। महर्षि पुराणों का भी खण्डन करते थे, इसलिए जिस उद्यान में महर्षि निवास करते थे उसके मालिक ने भी उनका विरोध किया। फलतः महर्षि के भक्त जन उन्हें डॉक्टर रहीम खां की कोठी ले आए। यह कोठी भक्त छज्जू के चौबारे के पास थी। इस कोठी में महर्षि व्याख्यान देते और दूसरे दिन शंका समाधान करते थे। इसी कोठी में निवास करते हुए महर्षि ने आर्य समाज के संशोधित दस नियम बनाये तथा आर्य समाज लाहौर की स्थापना की स्थापना हुई जिसका पहला सत्संग भी यहीं हुआ। धन्य हैं महर्षि! और धन्य डॉ. रहीम खां जिन्होंने सर्वधर्म सदभाव का एक अनूठा उदाहरण हमारे सामने रखा।

    महर्षि जब जोधपुर में प्रचारार्थ पधारे थे तो वे राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बरकत उल्ला खां के दादा की कोठी में निवास करते थे। श्री बरकत उल्ला खां ने सर्वधर्म सदभाव के नाते उस कोठी को राष्ट्रीय स्मारक के रु में दान कर दिया। ऐसे ही विरले अभिजात्य सज्जनों के सौजन्य से सर्वधर्म एकता की आदर्श भावना परम्परा से चली आ रही है।

    महर्षि ने सर्वधर्म सदभाव का अभियान चलाया था और आर्य समाज इस अभियान को अब तक चलाता आ रहा है। इतना ही नहीं मुस्लिम वर्ग भी आर्य समाज के इस सौहार्दपूर्ण अभियान का आदर करते हैं। आर्य समाज स्थापना शताब्दी दिल्ली १९७५ तथा महर्षि दयानन्द निर्वाण शताब्दी अजमेर १९८३ के अवसर पर मुसलमानों ने शोभा यात्राओं के समय अपनी भावभीनी श्रद्धांज्जलि अर्पित की थी। प्रभु इस परम्परा को दोनों और से बने रखे। - विश्वनाथ शास्त्री

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    Maharishi Dayanand loved his principles, but this does not mean that he disregarded the principle of others. He was very tolerant. Even while reviewing the principles of mythology or idol worship of Hinduism from the classical point of view, they considered the Hindu religion as liberal due to the vastness of the heart. In one incident of his life, he reached Amritsar around 14. At the request of the commissioner there, Maharishi came to his bungalow.

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  • महर्षि दयानन्द के मन्तव्य - बच्चों का विश्वास कैसे हो

    महर्षि दयानन्द के मन्तव्य - बच्चों का विश्वास कैसे हो

    लार्ड मैकॉले के सिद्धान्तों के आधा पर जो शिक्षा स्कूलों में दी जा रही है वह शिक्षा नहीं है। यह शिक्षा बच्चों के विकास में सुधार न कर उनको कुपथ पर ले जा रही है। वे केवल भौतिक शिक्षा की ओर बढ़ रहे हैं। अपने माता-पिता, बूढ़ों का न वे आदर कर पाते हैं न ही उनकी सेवा सुश्रुषा में रूचि रखते है। उनके पास बैठना, बात करना तक भी उन्हें गवारा नहीं लगता। छोटी आयु में ही प्रेम, सेक्स, यौन शिक्षा की ओर आकृष्ट हो रहा है। इसेक अतिरिक्त कुछ नहीं जबकि बच्चे के जीवन निर्माण के लिए चारित्रिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।

    शिक्षा ग्रहण करने के लिए शिशु को तीन सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है। तीन गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है। माता, पिता, आचार्य। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है 'मातृमान, पितृमान, आचार्यवान पुरुषो वेद। स्वामी जी लिखते हैं वह बच्चा भाग्यवान है जिसके माता पिता सदाचारी, धार्मिक विचार वाले तथा सद्व्यवहारी है। बच्चे के निर्माण के लिए गर्भाधान संस्कार कराया जाता है तकि गर्भ से ही माता अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दे सके। शुद्ध और पवित्र विचार रखते हुए नशीली और वासना उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का सेवन न करे, अपितु स्वास्थ्य वर्द्धक, सुगति और सभ्यता देने वाली वस्तुओं का सेवन करें। क्योंकि माता के विचारों का प्रभाव बच्चे पर गर्भ से ही पड़ता है। वह अपने सदाचार और सद्व्यवहार का प्रभाव तब तक डालती रहे जब तक वह बच्चा पूर्ण रूपेण अपनी शिक्षा को प्राप्त न कर जाए।

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    भूत-प्रेत की कथाओं, पाप पाखण्ड से दूर रखें क्योंकि स्वामी दयानन्द जी इसके कट्टर विरोधी थे। यह बालक के विकास में घातक है। चरक की विधि तथा मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता का व्यवहार केसा होना चाहिए। माता स्वयं कैसा जीवन व्यतीत आकर और शिशु का पालन पोषण कैसे करे। इसका समाधान है कि माता प्रथम गुरु होने के नाते वह अपने बच्चे को संस्कारित, सभ्य तथा सुशिल बनाये ताकि वह अपने शरीर के किसी भी अंग का दुरूपयोग न करे। वाणी में नम्रता, उच्चारण शुद्ध और भाषा शुद्ध और स्पष्ट हो। बड़ों के साथ उचित व्यवहार, सम्मान, सेवा और आज्ञा का पालन करें। महर्षि अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने चाणक्य नीति की मान्यता को अक्षरशः सत्य बताते हुए कहा है- 
    माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।।
    वह माता बच्चों के पूर्ण रूप से शत्रु है जो अपने बच्चों को अच्छी विद्या नहीं दे पते वे बच्चे समाज द्वारा विद्वानों द्वारा ऐसे अपमानित होते है जैसे हंसों के बीच बगुला।

    दुरसा रूप गुरू पिता - पिता का कर्तव्य है बच्चो को शिक्षा देने का जो पांच वर्ष पश्चात प्रारम्भ होता है। वह बच्चों को नियंत्रण में रखें। बच्चों को चोरी करने से, झूट बोलने से दूर रखे। उनकी पढाई का पूरा ध्यान रखे। अपनी पढाई के साथ बच्चों का निरीक्षण भी करता रहे। उसे निर्देश देता रहे उनके साथ कुछ भी व्यतीत करे। उनके आचार व्यवहार को देखे। अपनी पवित्र कमाई से बच्चों का पालन पोषण करे। कर्तव्य है इसकी जानकारी उसे दे।

    तीसरा गुरू आचार्य - पिता द्वारा दी गई शिक्षा के पश्चात् बच्चे को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरूकुल के आचार्यों के पास भेज देना चाहिए या फिर से विद्यालय में भेज दिया जाये जहां बच्चों का वास्तविक चरित्र निर्माण हो सके। आचार्य व अध्यापक सुशिक्षित, विद्वान सदाचारी होने चाहिए। विद्यालय में उनकी नियुक्ति भली प्रकार से निरिक्षण करने के पश्चात् होनी चाहिए। वह अपने विषय की पूरी जानकारी रखता हो। महर्षि दयानन्द ने शिक्षा के सुधारको को प्रमुख माना।
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    शिक्षा के प्रति उनके मन्तव्य 

    १. सार्वजानिक शिक्षा :-सभी बच्चों को उच्च व निम्न जाति, गरीब व अमीर, पढ़ने का सामान अधिकार दिया जाए, समान पढ़ाया जाये किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं रखा जाये।

    २. पुत्रियों की शिक्षा :- पर अधिक बल दिया। यदि कन्या सुशिक्षित होगी तो अपने पतिगृह में जाकर अपने बच्चों व परिवार को पूर्ण रूप से समृद्ध करेगी। अतः पुत्रियों को उच्च से शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह परिवार, राष्ट्र और समाज का भला कर सके। अपने बच्चे का भविष्य बना सके।

    ३. राज्य की ओर से शिक्षा का प्रबन्ध :- राज्य सरकार का प्रमुख कर्तव्य है कि वह बच्चों के शिक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं ले माता-पिता को इससे मुक्त रखा जाये माता-पिता को केवल बच्चों को पढ़ाते समय कठोरता का व्यवहार करें। किसी भी प्रकार की ढील नहीं दें उनका स्वाभाव मन से दयालु हो वे उनके शुभचिन्तक हो।

    ४. सह शिक्षा :-राज्य में सह शिक्षा पर कड़ी पाबन्दी लगाई जाये। लड़के व लड़की के विद्यालयों पृथक व आबादी से काफी दुरी पर हो। एक साथ पढ़ने से योन शिक्षा और प्रेम की ओर दोनों आकर्षित होते है जोकि उनके भविष्य के लिए उचित नहीं है।

    ५. शूद्र शिक्षा : - शूद्रों को पढ़ाने के लिए भी महर्षि ने पूरी शक्ति के साथ समर्थन किया और प्रयास किया प्रत्येक जाति के बालकों को पढ़ने का अधिकार दिलाया। महर्षि ने पतन्जलि के महाभाष्य को मान्यता देते हुए कहा है कि बच्चों को नशीली वस्तुओं व अत्यन्त वासना प्रधान वस्तुओं से दूर रखा जाये ताकि पवित्र मन, शुद्ध ह्रदय वाले बने। उनके मन में अभद्र भावनायें न आएं। बड़ों से अभद्र व्यवहार न करें। वे अच्छे आचरण को ही स्वीकार करे। आलस्य से दूर रहें।
    ऋषि की शिक्षा व उनके सिद्धान्त सब बच्चों की सर्वागीण उन्नति कर सकते है। अतः इन्हीं उदेश्यों का आचरण करना चाहिए।

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    The Education that is being given in schools on half of Lord Macaulay's principles is not education. This education is not improving the development of children and taking them to the path. They are only moving towards physical education. They are neither able to respect their parents, old people nor are they interested in their service Sushrusha. They do not even think to sit near them and talk. Being attracted towards love, sex, sex education at a young age.

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  • स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल एवं स्वतंत्रता आंदोलन - २

    स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल एवं स्वतंत्रता आंदोलन - २

    १९१३ में १८ मार्च से २३ मार्च तक गांधी जी प्रायः हरिद्वार मुख्यतः गुरुकुल कांगड़ी में रहे। १८ मार्च को गुरुकुल कांगड़ी में अछूतोद्धार सम्मेलन हो रहा था। गांधी जी भी इस सम्मेलन में शामिल हुए। अपने अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि हिन्दुओं को प्रायश्चित की भावना से कार्य करना चाहिए। २० मार्च को गुरुकुल का पुरस्कार वितरण समारोह था। गांधी जी इस समारोह में शामिल हुए। आपने कहा पाठशाला का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण शिल्प, खुली हवा, आजादी तथा अपने लोगों की सेवा के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना चाहिए। इसी दिन गुरुकुल कांगड़ी के वार्षिक उत्सव में उन्होने एक मार्मिक भाषण दिया। उन्होंने उचित धार्मिक भावना हमारी सबसे बड़ी तात्कालिक आवयश्यकता है। हमारी धार्मिक भावना सुप्त है और हम लोग इस कारण हमेशा भयभीत बने रहते हैं।

    २३ मार्च को उनकी तबियत ठीक न होने पर भी आर्यसमाज भवन हरिद्वार में उन्होंने दयानन्द स्कूल के विद्यार्थियों के सामने एक छोटा सा भाषण देते हुए कहा कि अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनाना चाहिए, तभी तो वे देश के प्रति सच्चे बन सकते हैं। गुरुकुल कांगड़ी के महात्मा मुंशीराम के साथ मार्च १९१६ में महात्मा गांधी जी की मुलाकात शायद अंतिम मुलाकात थी, क्योंकि अगले वर्ष १९१७ में ही महात्मा मुंशीराम जी ने सन्यांस आश्रम में प्रवेश किया और वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। संन्यासी बन जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी केवल गुरुकुल कांगड़ी में न रहकर सकल मानव जाति के बन गए। अपने जान सेवा विशेषकर राष्ट्रीय सेवा में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। महात्मा गांधी जी के आग्रह पर आपने कांग्रेस को सहयोग देना भी स्वीकार लिया। १९१८ में गढ़वाल (वर्तमान उत्तरांचल) में अकाल पद गया। उन दिनों पहला विश्वयुद्ध चल रहा था। अतः भारत की अंग्रेज सरकार का तो अपना राज सिंहासन ही डांवाडोल था।
    गढ़वाल की अकाल पीड़ित जनता की और ध्यान देने के लिए न उनके पास समय था और न ही सरकार इसकी आवयश्कता ही समझती थी। सरकार का तो यत्न था कि भारत की जनता को यत्न गढ़वाल अकाल की खबर तक न हो, परन्तु स्वामी श्रद्धानन्दजी जी को इस अकाल का पता चला तो उन्होंने अपने अखबार ''सत्यधर्म प्रचारक'' इस अकाल का पूरा विवरण लिखकर जनता से सहायता की अपील की। स्वामी जी की अपील पढ़कर लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि धन पानी की तरह बरसने लगा। स्वामी जी अपने साथियों को लेकर गढ़वाल पहुंच गए और सरकारी विरोध बाधाओं की परवाह न करते हुए दुःख और विवश जनता की सेवा में जुट गए।

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    Ved Katha Pravachan -20 | Introduction to the Vedas | धर्म की कसौटी - सबका कल्याण

    १९१९ का वर्ष भारत के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष था। विश्वयुद्ध में बुरी तरह फंसी ब्रतानवी सरकार ने भारत से धन और जन की सहायता प्राप्त करते हुए भारत की जनता को आश्वासन दिया था कि युद्ध जीत लेने के पश्चात अंग्रेजी सरकार भारत को आजाद कर देगी। पर युद्ध समाप्त होते ही विदेशी सरकार ने भारत भर में रोलट एक्ट लागू कर दिया। इस विश्वासघात के कारण जनता जनार्दन में असंतोष व द्वेष फ़ैल गया। महात्मा गांधी ने तंग आकर रौलेट एक्ट के विरुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह की घोषणा कर दी। तब मातृभूमि की पुकार सुनकर राष्ट्रहित के लिए अपनी आहुति देने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी को चुना गया। दिल्ली में सत्याग्रह कमेटी का गठन किया गया, जिसका प्रधान स्वामी श्रद्धानन्द जी को चुना गया। कमेटी ने ३० मार्च की सायं को स्वामी जी की अध्यक्षता में एक बैठक हुई। अलगे दिन ३० मार्च को दिल्ली भर में हड़ताल हुई। ३० मार्च १९१९ जब दिल्ली की जनता का नेतृत्व करते हुए वे चांदनी चौक के घंटाघर के निकट पहुंचे तो गोरखा सिपाहियों ने अपने बंदूकों की संगीने स्वामी जी की ओर तानते हुए कहा - ''हट जाओ नहीं तो छेद देंगे।'' यह सुनकर स्वामी जी एक कदम और आगे बढे गए। अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी। स्वामी जी ने बड़े ऊंचे स्वर में कहा - ''चलाओ गोली'' और वही खड़े रहे। वौ सैनिक स्वामी जी पर गोली चलाने की साहस नहीं जुटा सके। ४ अप्रैल, १९१९ को जामा मस्जिद दिल्ली में उसी सप्ताह अंगेजी सिपाहियों की गोलियों से शहीद होने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक शोक सभा का आयोजन किया गया। शहीद होने वाले ५ युवकों में तीन हिन्दुओं और दो मुसलमान युवक थे।
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    अन्य लोगों के साथ स्वमी श्रद्धानन्द जी को विशेष रूप से श्रद्धांजलि देने के लिए बुलाया गया। मस्जिद के मिम्बर पर खड़े होकर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपना भाषण वेदमंत्र के उच्चारण से आरम्भ किया। स्वामी जी के विचार सुनकर उपस्थित जन समूह देश भक्ति के नशे में झूम उठा। जामा मस्जिद की मिम्बर से भाषण देने वाले पहले तथा अंतिम गैर मुस्लिम व्यक्ति केवल मात्र स्वामी श्रद्धानन्द जी ही हुए हैं। उसी वर्ष अमृतसर में जलियांवाले बाग़ का खुनी काण्ड घटित हो गया। कांग्रेस का सालाना अधिवेशन अमृतसर में किया जाना असम्भव लगने लगा था, तब स्वामी जी ने इसका सारा दायित्व समिति अध्यक्ष बना दिया गया। अमृतसर में कांग्रेस का १९१९ में सालाना अधिवेशन सफलता पूर्वक कराना और स्वागत अध्यक्ष के पद से प्रथम बार हिन्दी भाषा में स्वागत भाषण करना स्वामी श्रद्धानन्द जैसे निर्भिक पुरुष के लिए ही सम्भव था।
    सितम्बर १९२२ में सिखों ने अंग्रेजी सरकार की दमन नीति के विरुद्ध ''गुरु के ब्याज'' का मोर्चा आरम्भ कर दिया। स्वामी श्रद्धानन्द जी अकालियों को अपना सहयोग और आशीर्वाद देने के लिए दिली से चलकर अमृतसर पहुंच गए। वहां उन्होंने अकाल तख्त के निकट हुई सभा में जो भाषण दिया। उससे चिढ़कर उस समय की पंजाब सरकार ने आपको जेल में बन्द कर दिया।  एक साल चार महीने की जेल यात्रा पूरी कर दिसम्बर १९२३ में स्वामी जी को रिहा किया गया। - तरसेम कुमार आर्य

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    The year 1919 was a very important year in the history of India. The British government, which was badly trapped in the World War, while receiving the help of money and people from India, assured the people of India that the British government would liberate India after winning the war. But as soon as the war ended, the foreign government implemented the Rowlatt Act across India. This betrayal led to dissatisfaction and malice in Janata Janardhana. Mahatma Gandhi got fed up and declared non-violent satyagraha against the Rowlatt Act. 

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  • सम्बन्ध एक मिथ्या

    सम्बन्ध एक मिथ्या - केवल जन्म व मृत्यु के मध्य में ही सम्बन्ध प्रतीत हो रहा है। इसलिए यह सम्बन्ध भी मिथ्या है। जो सामान आज नहीं तो दस दिन बाद अवश्य अपमानपूर्वक छोड़ना पड़ेगा। उसे दस दिन पहले सम्मानपूर्वक क्यों न छोड़ दें? जिस परिवार को दस दिन बाद रोते हुए छोड़ना है उस परिवार को दस दिन पहले हंसते हुए क्यों न छोड़ दें? तो क्या...

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