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आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य - संसार का उपकार करना

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के १० नियमों का निर्धारण वेद के आधार पर करते समय उपरोक्त नियम आर्य समाज के हर सदस्य के लिए उसके जीवन के उद्देश्य के रूप में निर्धारित कर दिया। और फिर इसकी विस्तृत व्याख्या की। शारीरिक, आध्यात्मिक और सामाजिक उन्नति करना। यह तीन प्रकार की वृति यदि संसार के मनुष्य समाज में हो तो इससे संसार का उपकार हो जाता है।

प्रथम शारीरिक उन्नति के लिए शरीर को निरोग और स्वस्थ्य रखना तथा परिवार जनों, इष्ट मित्रों और सम्पर्क में आने वाले सब मनुष्यों के शरीर को निरोग और स्वस्थ्य रखना और स्वास्थ्य रखना और शारीरिक विकास करना तथा कराना मनुष्य का उद्देश्य रहना चाहिए।

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आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की सोच आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित सत्यनिष्ठा, ईश्वर आस्तिक, परोपकारी, अहिंसक और औरों के काम आने वाली रचनात्मक सोच रहनी चाहिए। आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज का प्रथम नियम निर्धारित किया कि ''सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि का मूल परमेश्वर है। इस सत्य विद्या का स्त्रोत् कहा हैं, इसके लिए आर्य समाज के तीसरे नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने निर्देश दिया कि ''वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म हैं।'' परम शब्द धर्म से पहले लगाकर महर्षि ने मनुष्य को धर्म की पराकष्ठा का ज्ञान कराया और बता दिया कि सब सत्य विद्याओं का ज्ञान अर्जित करने के लिए हमें वेद पढ़ना और पढ़ाना चाहिए। यदि हम पढ़ने पढ़ाने में असमर्थ हैं तो हमें विद्वानों से सुनना और सुनाना चाहिए।

जो मनुष्य स्वयं वेद पढ़कर या वेद का ज्ञान विद्वान् से सुनकर दूसरे मनुष्यों को वेद का ज्ञान-विज्ञान पढ़ाता है एवं सुनाता है तो यझ यह वेद प्रचार का सबसे बड़ा परोपकार है। सत्य विद्याओं का ज्ञान प्रवाहित करने से सब मनुष्य वेद ज्ञान के ज्ञानी-विज्ञानी बन जाते हैं और उनकी विचारधारों सात्विक व धर्म परायण हो जाती है। धर्म परयाण विचारों से मनसा, वाचा, कर्मणा पूर्ण मनुष्य सामाजिक सात्विक, अहिंसक, परोपकार और यज्ञमय जीवन व्यतीत करने वाला बन जाता है।

सामाजिक उन्नति और विकास को भी महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मनुष्य आचरण का उद्देश्य निर्धारित किया है। मनुष्य समाज का अंग हैं, जिसमें वह पैदा हुआ, माता-पिता, बहिन-भाई के रिश्ते, वंश के अन्य व्यक्ति, पूर्वजों के साथ उनके रिश्ते और रिश्तों के साथ जुड़े कर्तव्य मनुष्य जीवन का मार्गदर्शन करते हैं। मनुष्य को समाज में सफल और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए धन-ऐश्वर्य की आवश्यकता त्याग भाव से भोगने के लिए वेद ज्ञान में निर्धारित यह व्यक्तिगत आवश्यकता नहीं, बल्कि सार्वजानिक आवश्यकता है।
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आर्य समाज के नौवें नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने परोपकार की इस भावना से संसार के उपकार करने के मानवीय उद्देश्य को प्रबल शब्दों में कर्तव्य के रूप में बतलाया है'' केवल अपनी उन्नति से ही सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए, बल्कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।'' यह नियम सर्व उपकारी, मनुष्य के व्यक्तिगत और सार्वजानिक विकास और उत्कर्ष अर्जित करने वाला साधन और माध्यम है। इसे अपने जीवन का उद्देश्य माना जाए तो संसार में हिंसा, विरोधाभास, ईर्ष्या-द्वेष, अपराध वृत्ति, झूठ फरेब जैसे दुर्गुण तुरन्त प्रभाव से समाप्त हो जायेगे। आज के इस श्रृंगार रस में डूबे हुए समाज में आपराधिक वृत्ति, आतंकवाद, जाति-पाति पर आधारित भेदभाव और आक्रमणकारी हिंसक प्रवृत्ति का मूल कारण यह है कि हम सबने उपरोक्त वैदिक नियमों का, जिनका महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के दस नियमों में विशेष उल्लेख किया है, का अनुसरण करना छोड़ दिया है। आर्य समाज, अन्य धर्मस्थान व समाज सेवी संस्थाओं ने परोपकारी कार्य करने का प्रयास किया है: जिसे निःशुल्क चिकित्सालय खोले है, पाठशालायें खोली है, यज्ञशाला बनवाई हैं, गौशालाओं का निर्माण किया है, परन्तु इन सबके होते हुए भी कमी मनुष्य के अंतःकरण की पवित्रता की है।

स्वार्थ सिद्धि ने पवित्रता को, परोपकार की भावना को नष्ट कर दिया है और इसके स्थान पर जोर-जबरदजस्ती ने अपराध की सीमा तक भी पहुँचकर मनुष्य स्वार्थ सिद्धि की पूर्ति के लिए अपने आपको अनैतिकता के दलदल में गिराता चला जा रहा है। मनुष्य के आचरण की पवित्रता के बारे में कवियों ने बहतु सुन्दर कवितायेँ लिखी हैं। एक कवि की दो पक्तियाँ प्रस्तुत है:-

फरिश्तों से बेहतर है, इन्सान होना। कर्म पर ही निर्भर है, सम्मान होना।।
वैदिक संस्कृति के मूल्यों का आदर और सम्मान करते हुए मनुष्य कर्म को धर्म अपनी सत्यनिष्ठा से बना लेता है तथा पुरुषार्थ से अर्जित किया हुआ धन-ऐश्वर्या एक व्यक्ति के समक्ष पात्र में आता है और वह ईश्वर का ध्यान करके उनका भोग लगाने वाला है, इतने में एक अतिथि पहुँचता है। वह व्यक्ति वह खाद्य पदार्थ सम्मान उस अतिथि के समक्ष के प्रस्ततु कर देता है। वह गृहस्थी खाद्य पदार्थ के सेवन की इच्छा करने जा रह था, वह उसका कर्म था, अतिथि को प्रस्तुत कर दिया, वह उसका धर्म है।
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आज जीवन दर्शन है। मनुष्य अपने व्यक्तिगत भोग से पूर्व अपने परिवार, वंश, आसपड़ोस, संपर्क में आने वाले इष्ट, मित्रों, विद्वानों, सन्यासियों का विचार करके उनकी तृप्ति के पश्चात स्वयं ईश्वरीय पदार्थों का भोग करता है, उसको वेद की भाषा में ''तेन व्यक्तेन भुंजीथा'' कहा गया है। इस सृष्टि में परमात्मा ने मनुष्य के भोग व सेवन के लिए नाना प्रकार के पदार्थों की रचना की है, परन्तु उनका त्याग भाव से सेवन करो, त्याग भाव से रहो, यह शिक्षा हमें यज्ञ देता है। हम अपने घर से अपने पुरुषार्थ से कमाई से सामग्री, घृत, मिष्टान आदि यज्ञशाला में ले जाकर यज्ञ की पवित्र अग्नि प्रज्जवलित करके वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ आहुति डालते हैं, वहीँ दूसरी ओर समस्त संसार के वनस्पति, जीव जन्तु मनुष्यों को उसका लाभकारी प्रभाव प्राप्त हो रहा है, इसलिए वेद की भाषा में यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा गया है।

परम पिता परमेश्वर को हम सब प्राणी जो किसी भी स्थान पर रहते हैं, कोई भी मत रखते हैं, ईश्वर की सत्ता में अवश्य विश्वास करते हैं तो हमारा कर्तव्य बनता है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज नियम की अवश्य पालन करें:-''संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।'' - हरवंश लाल कपूर

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Maharishi Dayanand Saraswati, while determining the 10 rules of Arya Samaj based on Vedas, laid down the above rules as the objective of his life for every member of Arya Samaj. And then explained it in detail. To make physical, spiritual and social progress. If these three types of nature are in the human society of the world, then it becomes a favor of the world.

 

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