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आर्य समाज का दायित्व

आर्य समाज की स्थापना कांग्रेस के जन्म से दस वर्ष पहले हो चुकी थी। डा. पट्टाभि सीतारमैया के शब्दों में स्वराज्य के जो स्वर १९०६ में कांग्रेस के मंच पर मुखरित हुए उसकी सम्पूर्ण योजना और कार्यक्रम आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने १८७५ में ही देश वासियों को दे दी थी। अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकश में स्वराज्य को सुराज में बदलने की रुपरेखा भी अंग्रेजी राज को भारत से उखाड़ने के साथ-साथ स्वामी जी ने उन्हीं दिनों अपन ग्रन्थों में लिख दी थी। सुप्रसिद्ध क्रन्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा को विदेश में भेजकर स्वराज्य के लिए भूमिका तैयार करने में भी स्वामी जी दूरदृष्टि काम कर थी। भारत में देशी राजाओं को जी १८५७ की क्रान्ति में छुपे बैठे रहे उनको कर्त्तव्य बोध कराने में स्वामी जी ने कई बार देशी रियासतों की यात्रा की। उनके महाप्रयाण के बाद आर्य समाज के बहुत से नेता राष्ट्रीय आन्दोलन की अगली पंक्ति में रहकर स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे। अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, पंजाब केसरी लाला लाजपतराय, देवतास्वरूप भाई परमानन्द, चौधरी रामभजदत्त आदि नेता उसी पीढ़ी के थे। क्रन्तिकारी आन्दोलन में भी सरदार भगत सिंह और राम प्रसाद बिस्मिल जैसे कई उभरते व्यक्तित्व आर्य समाज ने देश को दिये। इतना सब कुछ ज्ञान होने के बाद बी आर्य समाज विशुद्ध रूप से सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन रहकर ही कार्य करे ये सब की इच्छा रही। परन्तु राजनीति से सदा आंख बन्द रखें और आर्य समाज राजनीति का निर्देश भी करे यह अभिप्राय किसी का नहीं था।

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Ved Katha Pravachan - 23 | Explanation of Vedas & Dharma | जैसा बोओगे वैसा काटोगे

अंग्रेज भारत को आर्थिक गुलामी में जकड़ने के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक बन्धनों में भी बांधकर रखना चाहता था। इसके लिए अंग्रजों ने जहां ईसाई मिशनरियों का जाल पूरे भारत में फैला। दिया वहीँ सरकारी शिक्षा संस्थाओं का भी खुला समर्थन इससे हो रहा था। लार्ड मैकाले ने इसी बात की अपनी सफलता का उल्लेख करते हए एक पत्र में लिखा था- 'वह दिन दूर नहीं जब भारतीय मन और मस्तिष्क दोनों ही हमारे षड़यंत्र का शिकार हो चुके होंगे। शरीर से भले ही वह हिन्दुस्तानी लगे पर उनके विचारों और वेशभूषा पर हम पूरी तरह से छ जायेंगे।' आर्य समाज ने इस चुनौती का भी मजबूती से सामना किया। उसके गुरुकुल और डी.ए.वी कॉलेज जहां युवा पीढ़ी में राष्ट्रीयता कूट-कूट भरने में लगे थे वहाँ ईसाई मिशनरियों की दुकाने बंद करवाने में भी आर्य समाज ने प्रमुख भूमिका निभाई। यह बात दूसरी है कि अथवा बड़े धनपति का हाथ कमर पर न होने से कुछ क्षेत्रों में उतना काम न हो सका जितना। आवश्यक था। फिर भी मिशनरियों को नाकों चने चबवा दिए। भारत के पूर्वी भागों में जहां आर्य समाज की शाखाएँ नहीं थी वहाँ जरूर कुछ इन्होंने अपने पंजे जामये। पर देश के मध्यवर्ती क्षेत्रों से निरशा ही उनको हाथ लगी।

सामाजिक एवं राजनीतिक सुधार एक-दूसरे के पूरक हैं। आर्य समाज प्रारम्भ से ही इसे जनता था। इसलिए हरिजनों, आदिवासियों, महिलाओं की शिक्षा और उनकी सामाजिक स्थिति सुधारने प्रारम्भ से ही आर्य समाज ने विशेष यत्न किया। हिन्दू समाज ने भी इसमें साथ दे दिया होता तो तस्वीर आज कुछ और होती। फिर भी सौ वर्षों में इस क्षेत्र में की गई आर्य समाज सेवाएं आज इतिहास का विष बन गयी है। भारतीय संविधान में अस्पृश्यता अपराध माना गया है। हरिजनों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उन्हें नौकरियों और विधानमण्डलों में विशेष संरक्षण देने की भी व्यवस्था की गयी है। आजकल अतिरिक्त भूमि के वितरण में भी हरिजन परिवारों को प्राथमिकता दी जा रही है। पर क्या इससे समस्या का समाधान हो गया? यह तो प्रारम्भिक प्रयास मात्र है। इसमें अभी बहुत कुछ क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगें।

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जन्म से जात-पात की समाप्ति और अन्तर्जातियाँ सम्बन्धों के विकास में आर्य समाज ने प्रारम्भ से ही अच्छी रूचि ली है। परन्तु अब लगता है कुछ इसमें शिथिलता आ रही है। इसके लिए शासन के स्तर पर जहाँ कुछ सुधार अपेक्षित हैं वहाँ सामाजिक स्तर पर भी नये पग उठाने होंगे होंगे। तमिलनाडु की सरकार ने अन्तर्जातीय विवाह करने वालों को सरकार की ओर से आर्थिक सहयोग और नौकरियों में प्राथमिकता देने का अभियान प्रारम्भ किया है, वह अनुकरणीय है। आर्य समाज यदि इसके लिए अनुकूल भूमिका तैयार करे तो उसमें केवल हिन्दू समाज का ही नहीं मानव समाज का बहुत भला हो सकता है। इसके लिए अपने संगठन में उन अधिकारीयों को प्रमुखता दी जाये जिन्होंने जात-पात से ऊपर उठकर अपना पारिवारिक विस्तार अथवा वैवाहिक संबन्ध किये हैं। आर्य समाज के सदस्य और पदाधिकारी ही कहीं-कहीं अपने नाम के साथ जब जातिवाचक शब्द लाते हैं तो उनकी आस्था में संदेह होने लगता है। आर्य समाज की शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने और पढ़ाने वाले छात्रों एवं अध्यापकों के नामों के साथ जातिवाचक शब्दों का रहना उपहासास्पद लगता है। यहीं से जाति परक शब्दों के लिए मोह जगाता है। यदि यदि आर्य समाज इस दिशा में पहल करे तो शासन को विवश होकर इस ओर झुकना पड़ेगा। पीछे हरिजन समस्या के समाधान पर बोलते हुए वर्तमान प्रधानमंत्री ने कहा भी है जब तक देश में जात-पात की बुराई जीवित रहेगी तब तक हरिजन समस्या के स समाधान में बहुत बड़ी बाधा रहेगी।

अभी गांधी जयन्ती से शराबबंदी के बारह सूत्री कार्यक्रम की घोषणा भी की गयी है। पराधीन भारत में जिस शराब की बुराई से मुक्ति लेने का दृढ़ संकल्प किया गया था, वह दुर्भाग्य से स्वाधीनता के अट्ठाईस वर्ष बाद और भी कई गुणा बढ़ गई है कई राज्य सरकारों का भी इसमें प्रमुख हाथ रहा। राज्य की आय बढ़ाने के चक्कर में आंख मूंदकर शराब के लाइसेंस दिये जाते रहे। पर आर्य समाज जैसे समाज सुधारक संगठन मजबूती से इस ओर लग जायें तो समाज और सरकार दोनों को सही रास्ते पर आना पड़ेगा। मादक द्रव्यों का सेवन वाला चाहे कितना भी बड़े से बड़ा नेता न हो उसका और सरकारी अधिकारीयों का जब तक खुलकर जनता में विरोध नहीं किया जायेगा तब तक यह बुराई देश से जायेगी नहीं। राजनीति से पृथक रहते हुए भी कृतसंकल्प होकर यदि आर्य समाज ने इस बुराई को दूर करने का बीड़ा उठा लिया तो भावी भारत उसका ऋणी रहेगा।
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इसी तरह की एक और कमजोरी जो आज पुरे देश को स्वाधीन होने के बाद भी फिर से दासता के शिकंजों में जकड रही है वह है अंग्रेजी भाषा के बढ़ते हुए वर्चस्व की। एक बार तो यह लगने लगा था कि अंग्रेजी के नाम लेवा और पानी देवा बी इस देश में ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे, परन्तु अब फिर से अंग्रेजी हवा बढ़ रही है। सरकारी कार्यालयों, नौकरियों और परीक्षाओं में तो अंग्रेजी का दबदबा है ही। सामाजिक कार्यक्रमों में विशेषकर विवाह शादी के आमन्त्रणपत्रों तक में अंग्रेजी का भुत हावी हो रहा है। आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द जी ने अहिन्दी भाषी होते हुए भी राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार किया था। अपने ग्रंथों और भाषणों में भी उन्होंने उसका प्रयोग नहीं किया। परन्तु अब आकर हिन्दी के प्रचारक और समर्थक भी थकते से नजर आ रहे हैं। आर्य समाज भाषायी स्वाभिमान देश में जागृत करने के लिए यदि आगे आता है तो दूसरे लोग भी उसके पीछे चलेंगे। क्योंकि आर्य समाज को इसके माध्यम से अपने किसी राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति नहीं करनी है इसलिए भी उसकी आवाज स्वागत योग्य होगी। देश आज सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति के चौराहे पर है। इमसें भाषायी स्वाभिमान का प्रश्न भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। राष्ट्रीय चेतना जगाने में भाषा की भी अपनी प्रमुख भूमिका रहती है। आर्य समाज शताब्दी के दूसरे चरण में प्रवेश करते समय अपने कार्यक्रमों में इसका समावेश करे। इसी तरह के कई और भी ज्वलंत प्रश्न हैं जिनको आर्य समाज अपने कार्य्रकम में स्थान दे तो देश उसे हाथों-हाथ उठा लेगा।

राजनीतिक दल न होते हुए भी आर्यसमाज देश की वर्तमान और भावी राजनीति को स्वस्थ दिशा देने का काम आसानी से कर सकता है। सत्ता की राजनीति को सेवा की राजनीति में बदलने का काम प्रचलित राजनीतिक दलों द्वारा संभव नहीं है। यह आर्य समाज जैसे निष्पक्ष और तटस्थ संगठन ही कर सकते हैं। दशरथ की राजसभा में जो काम महर्षि वशिष्ठ का था वह ही आज आर्य समाज को निभाना होगा। किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न पर शासन और समाज दोनों आर्य समाज के संकेतों की आंख उठाकर प्रतीक्षा करें इस स्थिति में यदि आर्य समाज आ गया तो इतिहास में अमर हो जायेगा। - पं. प्रकाशवीर शास्त्री 

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Social and political reforms complement each other. The Arya Samaj was known to it from the beginning. Therefore, the Arya Samaj paid special attention since the beginning of education of Harijans, tribals, women and improving their social status. Had Hindu society also supported it, the picture would have been different today. Nevertheless, Arya Samaj services performed in this area in a hundred years have become the poison of history today. Untouchability is considered a crime in the Indian Constitution. 

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